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सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व - इन तीन लक्षण वाले लिंग से लिंगी (साध्य) के धर्म विशिष्ट का ज्ञान होना अनुमान प्रमाण है। इस प्रकार बौद्ध दर्शन में दो ही प्रमाण स्वीकार किये गये हैं, शेष प्रमाण इन्हीं के अन्तर्गत हैं।
इति बौद्ध दर्शन
मीमांसा दर्शन -
मीमांसा दर्शन में वेद ग्रन्थों में प्रतिपादित धार्मिक कर्मकाण्ड विषयक ज्ञान की प्राप्ति को जिज्ञासा कहा गया है। उसके लिए निमित्त की परीक्षा करनी चाहिये। इसमें हेतु-निमित्त और प्रेरणा-निमित्त दोनों होना चाहिए। कहा गया है कि धर्म और वस्तु के स्वरूप को जानने के लिए प्रेरणा नामक लक्षण का होना आवश्यक है। प्रेरणा ही क्रिया की प्रवर्तक है.-ऐसा कहा गया है, जैसे स्वर्ग की कामना से अग्निहोत्र करें, वेद के द्वारा ही धर्म का लक्ष्य प्राप्त होता है, प्रत्यक्ष आदि से नहीं।
पुनः कहते हैं - प्रत्यक्ष अनिमित्तक कैसे होता है ? वह इस प्रकार है - पुरूष की इन्द्रियों का वस्तु के साथ संबंध होने से पर-बुद्धि (विषयग्राही बुद्धि) का जन्म होता है, और उसी से विद्यमान वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। इसलिए प्रत्यक्ष प्रमाण अनिमित्तक है। उसी प्रकार अनुमान प्रमाण भी प्रत्यक्षपूर्वक होने से अनिमित्तक है। उसी प्रकार उपमान प्रमाण भी अनिमित्तक है।
जैसे गाय और गवय की समानता का ज्ञान होने पर गवय ही प्रमेय है, जो अनिमित्तक है। उसी प्रकार अर्थापत्ति प्रमाण भी होता है, वह दो प्रकार का है - श्रवण की अपेक्षा और दर्शन की अपेक्षा से। श्रवण की अपेक्षा जैसे हष्ट-पुष्ट देवदत्त दिन में खाना नहीं खाता है, अतः वह रात्री में खाता है। यह ज्ञान अर्थापत्ति से प्राप्त होता है। यहाँ रात्री में खाता है, यह वाक्य ही प्रमेय है। दर्शन की अपेक्षा से जैसे भस्म को देखकर अग्नि की दाहशक्ति को जाना जाता है, उसी प्रकार अन्य विषय भी शास्त्र से जानकर ही कहे जाते है, –यही आगम प्रमाण है। अभाव प्रमाण के विषय में कहा गया है कि अभाव प्रमाण भी अनिमित्तक हैं। अतः यह स्पष्ट होता है कि प्रेरणा ही धर्म का लक्षण है, अन्य नहीं। उसी प्रकार वर्णों (शब्दों) का वाचकत्व हेतु अर्थप्रतिपत्ति ही
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