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मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग – ये (पांच) बन्ध के हेतु हैं । मन-वचन-काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । यह आश्रव रूप है। शुभ कर्म पुण्य है, इसके विपरीत पाप है। आश्रव का कार्य बन्ध है । आश्रव के विपरीत संवर है । संवर का फल निर्जरा है ।
अब प्रमाण के विषय में कहते हैं
प्रमाण तीन प्रकार है
1. प्रत्यक्ष, 2 अनुमान, और 3 आगम
इन्द्रिय एव मन के निमित्त से होने वाले निश्चित, अव्यभिचारी और विशेष ज्ञान को लौकिक व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है। अवधिज्ञान आदि निश्चय से प्रत्यक्ष हैं ।
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लिंग से लिंगी का जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अनुमान प्रमाण T जैसे धुंए से अग्नि का ज्ञान ।
तप से स्वर्ग की प्राप्ति होती है, यह आगम प्रमाण है, जो प्रत्यक्ष प्रमाण के विरूद्ध न होकर चक्षु आदि ज्ञान के समान निश्चित होता है वह आगम है ।
इति जैन दर्शन
सांख्य दर्शन
सांख्य दर्शन के स्वरूप को जानने के लिए निम्न कथन करते हैं विश्व के मूल आधार हैं - प्रकृति, पुरूष और उनका संयोग । सत्व, रजस् तथा तमस् गुणों की साम्यावस्था प्रकृति है। प्रकृति पुरूष के संयोग से ही वैषम्य अवस्था को प्राप्त होती है। जो इस प्रकार है
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प्रकृति से महत् (बुद्धि) तत्व आविर्भूत होता है । महत् तत्व से अहंकार की उत्पत्ति होती है। अहंकार से एक ओर निम्न ग्यारह की उत्पत्ति होती है
पाँच ज्ञानेन्द्रियां, पाँच कर्मेन्द्रियां तथा मन ।
अहंकार के तमस् अंश की अधिकता से निम्न पाँच तन्मात्राओं की उत्पत्ति होती है। वे इस प्रकार हैं
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शब्दतन्मात्र, स्पर्शतन्मात्र, रूपतन्मात्र रसतन्मात्र और गन्धतन्मात्र । इन तन्मात्राओं से क्रम से पाँच भूत उत्पन्न होते हैं अर्थात् शब्द तन्मात्र से
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