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________________ २४ 2. प्रमेय :- पुनः यह प्रश्न उपस्थित होता है, कि इस शब्द प्रमाण के द्वारा जिज्ञासु को कौन से प्रमेयों का ज्ञान होता है, तो कहतें हैं कि शब्द प्रमाण से आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दुख, अपवर्ग आदि प्रमेयों का ज्ञान होता है। 3. संशय :- किसी निश्चित अवधारणा का न होना संशय कहलाता है। वह इस प्रकार है - मन्दप्रकाश में भूमि पर उर्ध्व स्थित वस्तु को देखकर यह ढूंठ है या पुरूष, ऐसा ज्ञान संशय कहा जाता है। 4. प्रयोजन :- जिसके कारण से कोई भी प्रवृत्ति की जाती है, वह प्रयोजन कहलाता है। 5. दृष्टान्त :- किसी मत के प्रतिपादन के लिए दिया गया उदाहरण जैसे वस्तु की अनित्यता के लिए घट का ओर नित्यता के लिए आकाश का उदाहरण देना दृष्टान्त है। 6. सिद्धान्त :- सिद्धान्त चार प्रकार के हैं - (1) स्वतन्त्र सिद्धान्त (2) प्रतितन्त्र सिद्धान्त (3) अधिकरण सिद्धान्त और (4) अभ्युपगम सिद्धान्त । 7. अवयव :- प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन - ये अनुमान के पाँच अवयव है। जैसे - शब्द अनित्य है – प्रतिज्ञा क्योंकि वह उत्पन्न हुआ है – हेतु घट के समान – उदाहरण जो उत्त्पत्तिधर्मक होता है वह अनित्य होता है, जैसे - घट (यहाँ व्याप्ति दृष्टान्त का अनुगमन करती है) इसी प्रकार शब्द भी उत्त्पत्तिधर्मक है - उपनय उत्त्पत्तिधर्मक होने से शब्द अनित्य है - निगमन यहाँ विपरीत धर्म का भी उदाहरण दिया जा सकता है। जैसे जो नित्य होता है, वह उत्त्पत्तिधर्मक भी नहीं होता है, जैसे- आकाश; शब्द अनुत्पत्तिधर्मक नहीं है, अतः उत्पत्तिधर्मक होने से शब्द अनित्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001804
Book TitleSarvsiddhantpraveshak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2008
Total Pages50
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size3 MB
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