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________________ vi हुई है, पर तंत्र विद्या लगभग लुप्तप्राय सी बनी रही। फलतः प्राचीन जैन ग्रन्थों में इन तान्त्रिक शब्दों की समुचित परिभाषाएं भी नहीं पाई जातीं। किन्तु परवर्तीकारणों में जैन पूजा प्रतिष्ठाविधि, ध्यान साधना विधि एवं अन्यान्य कर्मकाण्डों में किस प्रकार तान्त्रिक साधना के विधि विधानों का प्रवेश होता गया है, इसका चित्रण प्रो० सागरमल जैन ने प्रस्तुत कृति में विस्तार से किया उत्तरवर्ती ग्रन्थों में भी मंत्र और यंत्र शब्द तो प्रायः परिभाषित हैं पर तंत्र शब्द नहीं। हाँ, "मंत्र-तंत्र' के रूप में इसका कहीं-कहीं उल्लेख अवश्य मिलता है। फलतः तंत्र को मंत्र का एक विशिष्ट रूप ही माना गया है, ऐसा लगता है। जैनेन्द्र सिद्धांत कोश-३. एवं जैन लक्षणावली-२ में भी तन्त्र शब्द का उल्लेख नहीं है। यही नहीं, ऐसा प्रतीत होता है कि "तंत्र' शब्द संभवतः ऐहिक सिद्धियों या कामनाओं की पूर्ति के लिये प्रचलित माना जाता था। इसीलिये अध्यात्मवादियों ने एवं ज्ञानार्णवकार ने दसवीं सदी में अनेक तांत्रिक विधि-विधानों को प्रकारान्तर से अपना कर भी तंत्र को दुष्ट चेष्टा माना है। इसके साधक को संशक्त, लौकिक एवं मंत्रोपजीवन-दोषी माना है। इसीलिये स्वतन्त्र तंत्र पद्धति जैनों में प्रतिष्ठित नहीं हो पाई। यह पाया गया है कि अनेक जैन विद्वानों ने जैन मंत्रों का संकलन किया है, परन्तु किसी ने भी उनका मूल स्रोत नहीं लिखा। जैन साहित्य के इतिहास तथा जैन-साहित्य की विविध विधाओं के ग्रन्थों में भी जैनों के मंत्र विषयक साहित्य का विशेष उल्लेख नहीं मिलता। बलदेव उपाध्याय भी "जैन-तंत्र" मानते हैं पर उसका विवरण उन्होंने नहीं दिया है। हिन्दी विश्वकोश भाग-६५ में भी इस विषय में मौन रखा गया है। इसके विपरीत बौद्ध मंत्र-तंत्र पर सर्वत्र प्रकाश डाला गया है। इसे शैव-शाक्त तंत्रों के समान गुप्त भी बताया गया है। बौद्धों में तो "मंत्र-यान" ही चल पड़ा था, जिसमें कौलाचार, वामाचार आदि तांत्रिक क्रियाकलाप भी समाहित हुए। इनका साहित्य विशाल है। किन्तु उसकी तुलना में जैनों का मंत्र-तंत्र साहित्य अत्यल्प है यद्यपि अनेक विद्वानों ने उसे व्याजस्तुतिअलंकार में विशाल भी कह दिया है। इससे यह स्पष्ट है कि जैनों को तंत्रवाद ने बहुत अधिक प्रभावित नहीं किया। इसका कारण संभवतः उनके निवृत्तिमार्गी सिद्धांत और उनके प्रति दृढ़आस्था ही माना जा सकता है। पर पूर्व उद्धरित उल्लेखों के अतिरिक्त जैनों के उल्लेख योग्य मंत्र साहित्य का निर्माण सातवीं-आठवीं सदी के बाद ही हुआ है जब लौकिक विधि की प्रमाणता स्वीकृत हुई। जिनसेन के महापुराण में अनेक प्रकार के मंत्रों की चर्चा है"। जैनों का अधिकांश मंत्र साहित्य णमोकार-मंत्र के आधार पर विकसित हुआ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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