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________________ आधारित है। तंत्र भौतिक क्रिया प्रधान हैं और संभवतः सगुण माध्यम से मनःशक्ति को प्रबल करते हैं। फलतः मंत्र - मनोभौतिक (मनः प्रधान शक्ति स्रोत) तंत्र - भौतिक (भौतिक क्रिया प्रधान शक्ति स्रोत्र) एवं यंत्र – मंत्र एवं तंत्र का अधिकरण है। इनकी इस अन्योन्य संबंद्धता के कारण इनका अलग-अलग अध्ययन करना एक दुरूह कार्य है। जैनों में मंत्र-तंत्र साहित्य जैन आगमों के अवलोकन से पता चलता है कि इसके दृष्टिवाद नामक विलुप्त बारहवें अंग के पांच भेदों में "पूर्वगत" नामक एक भेद है। इसमें विद्यानुवाद के अंतर्गत वर्णित ५०० महाविद्याओं, ७०० लघु विद्याओं एवं अष्टांग महानिमित्तों में तथा प्राणवाय (आयुर्वेद) के अंतर्गत भूत-प्रेत विद्या तथा मंत्र-तंत्र विद्या के नाम आते हैं | स्थानांग (६/२८) में नौ सूक्ष्म ज्ञानी नैपुणिकों में मंत्रवादी एवं भूतिकर्मी का उल्लेख है । समवायांग ७२ में भी विद्यागत, मंत्रगत एवं रहस्यगत कलाओं के नाम आते हैं। धरसेन के अनुपलब्ध "जोणिपाहुड" में भी मंत्र-तंत्र शक्तिपद आया है। इन उल्लेखों के बावजूद भी मंत्र-तंत्रों का विवरण न तो विशिष्ट आगम ग्रन्थों में ही मिलता है और न उत्तरवर्ती आगम-तुल्य ग्रन्थों में ही उपलब्ध है। लेकिन इन उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि महावीर के काल में या उसके परवर्ती युग में भूत-प्रेत विद्या और मंत्र विद्या प्रचलित थी और श्रमणों के लिये यह उनकी निपुणता की प्रतीक थी। प्रश्नव्याकरण, उत्तराध्ययन और मूलाराधना के अनुसार श्रमणों को आहार या आजीविका हेतु इन विद्याओं का उपयोग निषिद्ध था, यद्यपि आगमिक व्याख्याओं एवं भगवतीआराधना (गाथा ३०८) के अनुसार परिस्थिति विशेष में इनका उपयोग संभव था। ये जनकल्याण, धर्मप्रभावना या आत्मकल्याण के लिये ही विहित थीं। ये विद्यायें भारतीय संस्कृति की प्रायः सभी धाराओं में लोकप्रिय थीं। फिर भी, ये गोपनीय, रहस्यमय एवं व्यक्तिरूप में ही परिनिष्ठित रहीं। यही नहीं, देवोत ने बताया है कि इनसे संबंधित उत्तरवर्ती साहित्य में भी मंत्र सिद्धि की संपूर्ण विधि और मौलिक व्याख्या का अभाव है। इनसे ऐहिक सिद्धियों की प्राप्ति की लालसा कालान्तर में इनके दुरुपयोग का कारण बनी। इससे इनका विलोपन भी होने लगा। किन्तु सातवीं सदी के बाद जैन धर्म शासन देवता के रूप में शक्ति उपासना प्रचलित हुई और इन विद्याओं का पुनरुद्धार हुआ। इनमें मंत्र विद्या तो वैज्ञानिकतः प्रतिष्ठित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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