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________________ ६१ पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान तथा संध्या को धूप और दीप से पूजा की जानी चाहिए। इसमें पूजा के लिए कीट आदि से रहित पुष्पों के ग्रहण करने का उल्लेख है। साथ-साथ यह भी बताया गया है कि पूजा के लिए पुष्प के टुकड़े करना या उन्हें छेदना निषिद्ध है। इसमें गंध, धूप, अक्षत, दीप, जल, नैवेद्य, फल आदि अष्टद्रव्यों से पूजा का भी उल्लेख है। इस प्रकार यह ग्रंथ भी श्वेताम्बर जैन परम्परा की पूजा-पद्धति का प्राचीनतम आधार कहा जा सकता है। दिगम्बर परम्परा में जिनसेन के महापुराण में एवं यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में जिनप्रतिमा की पूजा के उल्लेख इस समग्र चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैनपरम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या स्तुति का स्थान भी था। उसी से आगे चलकर भावपूजा और द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई। उसमें भी द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिए हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराओं में जिनपूजा-सम्बन्धी जो जटिल विधिविधानों का विस्तार हुआ, वह सभी ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव था। फिर आगे चलकर जिनमंदिर के निर्माण एवं जिन विंबों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्त शास्त्री ज्ञानपीठ पूजांजलि की भूमिका में और स्व० डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने, अपने एक लेख पुष्पकर्म-देवपूजाः विकास एवं विधि, जो उनकी पुस्तक भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाडमय का अवदान (प्रथम खण्ड) पृ० ३७६ में प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्टरूप से स्वीकार किया है कि जैन परंपरा में पूजा-द्रव्यों का क्रमशः विकास हुआ है। यद्यपि पुष्पपूजा प्राचीनकाल से प्रचलित है फिर भी यह जैनपरंपरा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक ओर तो जैन पूजा विधान पाठ में ऐसे हैं, जिनमें मार्ग में होने वाली एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित्त हो, यथा ईर्यापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात्, एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकाय बाधा। निदर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे।। स्मरणीय है कि श्वे० परंपरा में चैत्यवंदन में भी 'इरियाविहि विराहनाये नामक पाठ मिलता है-जिसका तात्पर्य भी चैत्यवंदन के लिए जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का भी प्रायश्चित्त किया जाता है तो दूसरी ओर उनपूजाविधानों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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