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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना ६२ में, पृथ्वी, वायु, अप, अग्नि और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान है, यह एक आन्तरिक असंगति तो है ही। यद्यपि यह भी सत्य है कि चौथी-पॉचवीं शताब्दी से ही जैन ग्रंथों में इसका समर्थन देखा जाता है। सम्भवतः ईसा की छठी-सातवीं शती तक जैनधर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में हरिभद्र को इनमें कर्मकाण्डों का मुनियों के लिए निषेध करना पड़ा। ज्ञातव्य है कि हरिभद्र ने सम्बोधप्रकरण के कुगरु अधिकार में चैत्यों में निवास, जिनप्रतिमा की द्रव्यपूजा, जिनप्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि का जैनमुनि के लिए निषेध किया है। यद्यपि पंचाशक में उन्होंने इन पूजा-विधानों को गृहस्थ के लिए करणीय माना है।
जैनधर्म का अनुष्ठानपरक जैन साहित्य
अनुष्ठान सम्बन्धी विधि-विधानों को लेकर जैन परंपरा के दोनों ही सम्प्रदायों में अनेक ग्रन्थ रचे गये हैं। इनमें श्वेताम्बर परंपरा में उमास्वाति का 'पूजाविधिप्रकरण', पालिप्तसूरि की 'निर्वाणकलिका' अपरनाम प्रतिष्ठा-विधान एवं हरिभद्रसूरि का ‘पंचाशकप्रकरण'प्रमुख प्राचीन ग्रन्थ कहे जाते हैं। हरिभद्र के १६ पंचाशकों में श्रावकधर्म पंचाशक, दीक्षा पंचाशक, वंदन पंचाशक, पूजा पंचाशक (इसमें विस्तार से जिनपूजा का उल्लेख है), प्रत्याख्यान पंचाशक, स्तवन पंचाशक, जिनभवननिर्माण पंचाशक, जिनबिंबप्रतिष्ठा पंचाशक, जिनयात्रा विधान पंचाशक, श्रमणोपासकप्रतिमा पंचाशक,साधुधर्मपंचाशक, साधुसमाचारी पंचाशक, पिण्डविशुद्धि पंचाशक, शील-अंग पंचाशक, आलोचना पंचाशक, प्रायश्चित्त पंचाशक, दसकल्प पंचाशक, भिक्षुप्रतिमा पंचाशक, तप पंचाशक आदि हैं। प्रत्येक पंचाशक ५०-५० गाथाओं में अपने-अपने विषय का विवरण प्रस्तुत करता है। इस पर चन्द्रकुल के नवांगीवृत्तिकार अभयंदेवसूरि का विवरण भी उपलब्ध है। जैन धार्मिक क्रियाओं के सम्बन्ध में एक दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'अनुष्ठानविधि है। यह धनेश्वर सूरि के शिष्य चन्द्रसूरि की रचना है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है तथा इसमें सम्यक्त्व आरोपणविधि, व्रत आरोपणविधि, पाण्मासिक सामायिक विधि, श्रावकप्रतिमा- वहनविधि, उपधानविधि, प्रकरणविधि, मालाविधि, तपविधि, आराधनाविधि, प्रव्रज्याविधि उपस्थापनाविधि, केशलोचविधि, पंचप्रतिक्रमणविधि, आचार्य उपाध्याय एवं महत्तरा पद-प्रदान विधि, पोषधविधि, ध्वजरोपणविधि, कलशरोपणविधि आदि के साथ आत्मरक्षा कवच एवं सकलीकरण जैसी तान्त्रिक क्रियाओं के निर्देश मिलते हैं। इस कृति के पश्चात् तिलकाचार्य की 'समाचारी'
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