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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना
६० के ये दोनों प्रकार पूजा के द्रव्यों की संख्या एवं पूजा के अंगों के आधार पर हैं। सिद्धान्ततः इनमें कोई भिन्नता नहीं है।
जैनों की सत्रहभेदी पूजा में निम्न विधि से पूजा सम्पन्न की जाती है
१. स्नान, २. विलेपन, ३. वस्त्र युगल समर्पण ४. वासक्षेप समर्पण, ५. पुष्पसमर्पण, ६.पुष्पमालासमर्पण, ७. पंचवर्ण की अंगरचना (अंगविन्यास). ८. गन्ध समर्पण, ६. ध्वजा समर्पण, १०. आभूषण समर्पण, ११. पुष्पगृहरचना, १२. पुष्पवृष्टि १३. अष्ट मंगल रचना, १४. धूप समर्पण, १५. स्तुति, १६.नृत्य और १७. वांजित्र पूजा (वाद्य बजाना)।
यहां दोनों परम्पराओं के पूजा विधानों में जो बहुत अधिक समरूपता है, वह उनके पारस्परिक प्रभाव की सूचक है। इनमें भी पञ्च के स्थान पर अष्ट
और षोडश के स्थान पर सत्रह उपचारों के उल्लेख यह बताते है कि जैनों ने हिन्दू परम्परा से ही इसे ग्रहण किया है।
इसी प्रकार जहां तक पूजा के अंगों का प्रश्न है, जैन परम्परा में भी हिन्दू तांत्रिक परम्पराओं के ही समान आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण, पूजन और विसर्जन की प्रक्रिया समान रूप से सम्पन्न की जाती है। इसमें देवता के नाम को छोड़कर शेष सम्पूर्ण मन्त्र भी समान ही हैं। पूजाविधान की इन समरूपताओं का फलितार्थ यही है कि जैन परम्परा इन विधिविधानों के सम्बन्ध में हिन्दू परम्परा से प्रभावित हुई है।
'राजप्रश्नीय' के अतिरिक्त अष्टप्रकारी एवं सत्ररह भेदी पूजा का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति एवं उमास्वाति के पूजाविधि प्रकरण' में भी उपलब्ध है। यद्यपि यह कृति उमास्वाति की.ही है अथवा उनके नाम से अन्य किसी की रचना है, इसका निर्णय करना कठिन है। अधिकांश विचारक इसे अन्यकृत मानते हैं। इस पूजाविधिप्रकरण में यह बताया गया है कि पश्चिम दिशा में मुख करके दन्तधावन करे फिर पूर्वमुख हो स्नानकर श्वेत वस्त्र धारण करे और फिर पूर्वोत्तर मुख होकर जिनविंब की पूजा करे। इस प्रकरण में अन्य दिशाओं और कोणों में स्थित होकर पूजा करने से क्या हानियाँ होती हैं, यह भी बतलाया गया है। पूजाविधि की चर्चा करते हुए यह भी बताया गया है कि प्रातः काल वासक्षेप-पूजा करनी चाहिए। इसमें पूजा में जिनबिंब के भाल, कंठ आदि नव स्थानों पर चंदन के तिलक करने का भी उल्लेख है। इसमें यह भी बताया गया है कि मध्याह्मकाल में कुसुम से
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