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अध्याय-३
पूजा विधान और धार्मिक अनुष्ठान
पूजाविधान, अनुष्ठान और कर्मकाण्डपरक साधनाएँ प्रत्येक तांत्रिक उपासना पद्धति के अनिवार्य अंग हैं। कर्मकाण्डपरक अनुष्ठान और पूजा विधान उसका शरीर है तो अध्यात्म साधना उसका प्राण है। भारतीय धर्मों में प्राचीनकाल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्टरूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक धर्म कर्मकाण्डात्मक अधिक रहा है, वहाँ प्राचीन श्रमण परम्पराएँ आध्यात्मिक साधनात्मक अधिक रहीं हैं।
जैन परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिए यह भी अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं उत्तराध्ययन जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्ड का विरोध ही परिलक्षित होता है। उत्तराध्ययनसूत्र की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जाने वाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ,श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन और बौद्ध परम्पराओं ने उनका खुला विरोध किया और इस विरोध में उन्होंने इन सबको एक नया अर्थ प्रदान किया । भारतीय अनुष्ठानों और कर्मकाण्डों में यज्ञ, स्नान आदि अति प्राचीनकाल से प्रचलित रहे हैं। उत्तराध्ययनसूत्र (१२/४०-४४) में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है। उसमें कहा गया है कि "जो पाँच संवरों से पूर्णतया सुसंवृत हैं अर्थात् इन्द्रियजयी हैं जो जीवन के प्रति अनासक्त हैं, जिन्हें शरीर के प्रति ममत्वभाव नहीं है, जो पवित्र हैं और जो विदेह भाव में रहते हैं, वे आत्मजयी महर्षि ही श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं। उनके लिए तप ही अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है। मन,वचन और काय की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है। यही यज्ञ संयम से युक्त होने के कारण शान्तिदायक और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञों की प्रशंसा की है'। स्नान के आध्यात्मिक स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसमें कहा गया है-धर्म ही ह्रद (तालाब) है, ब्रह्मचर्य तीर्थ (घाट) है और अनाकुल दशारूप आत्म प्रसन्नता ही जल है, जिसमें स्नान करने से साधक दोषरहित होकर विमल एवं विशुद्ध हो जाता है (उत्तराध्ययनसूत्र १२/४६)।
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