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जैनधर्म और तान्त्रिक साधना
बुद्ध ने भी अंगुत्तरनिकाय के सुत्तनिपात में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन किया है। उसमें उन्होंने बताया है कि कौन सी अग्नियाँ त्याग करने योग्य हैं और कौन सी अग्नियाँ सत्कार करने योग्य हैं । वे कहते हैं कि “कामाग्नि, द्वेषाग्नि और मोहाग्नि त्याग करने योग्य हैं और आह्वानीयाग्नि, गार्हपत्याग्नि और दक्षिणाग्नि अर्थात् माता-पिता की सेवा, पत्नी और सन्तान की सेवा तथा श्रमण-ब्राह्मणों की सेवा करने योग्य हैं। महाभारत के शान्तिपर्व और गीता (४/२६-३३) में भी यज्ञों के ऐसे ही आध्यात्मिक और सेवापरक अर्थ किये गये
हैं।
इससे स्पष्ट है कि जैन परम्परा ने प्रारम्भ में धर्म के नाम पर किये जाने वाले कर्मकाण्डों का विरोध किया और अपने उपासकों तथा साधकों को ध्यान, तप आदि की अध्यात्मिक साधना के लिए प्रेरित किया। साथ ही साधना के क्षेत्र में किसी देवी देवता की उपासना एवं उससे किसी प्रकार की सहायता या कृपा की अपेक्षा को अनुचित ही माना। जैन धर्म के प्राचीनतम ग्रंथों में हमें धार्मिक कर्मकाण्डों एवं विधि-विधानों के सम्बन्ध में केवल तप एवं ध्यान की विधियों के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं मिलता है। पार्श्वनाथ ने तो तप के कर्मकाण्डात्मक स्वरूप का भी विरोध किया था। आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का नवॉ अध्ययन महावीर की जीवनचर्या के प्रसंग में उनकी ध्यान एवं तप साधना की पद्धति का उल्लेख करता है। इसके पश्चात् आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि ग्रंथों में हमें मुनिजीवन से सम्बन्धित भिक्षा, आहार, निवास एवं विहार सम्बन्धी विधि-विधान मिलते हैं। उत्तराध्ययन के तीसवें अध्याय में तपस्या के विविध रूपों की चर्चा भी हमें उपलब्ध होती है। इसी प्रकार की तपस्याओं की विविध विधियों की चर्चा हमें अन्तकृतदशा में भी उपलब्ध होती है जो कि उत्तराध्ययनसूत्र के तप सम्बन्धी उल्लेखों की अपेक्षा परवर्ती एवं अनुष्ठानपरक है। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि अंतगडदसाओ (अंतकृतदशा) का वर्तमान स्वरूप ईसा की ५ वीं शताब्दी के पश्चात् का ही है। उसमे आठवें वर्ग में गुणरत्नसंवत्सरतप, रत्नावलीतप, लघुसिंहक्रीड़ातप, कनकावलीतप, मुक्तावलीतप, महासिंहनिष्क्रीडिततप, सर्वतोभद्रतप, भद्रोत्तरतप, महासर्वतोभद्रतप और आयम्बिलवर्धमानतप आदि के उल्लेख मिलते हैं। हरिभद्र ने तप पंचाशक में आगमानुकूल उपरोक्त तपों की चर्चा के साथ ही कुछ लौकिक व्रतों एवं तपों की भी चर्चा की है जो तांत्रिक साधनों के प्रभाव से जैनधर्म में विकसित हुए थे।
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