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४९ जैन देवकुल के विकास में हिन्दू तंत्र का अवदान साधना का सम्बन्ध मूलतः ब्राह्मण परम्परा से रहा हो, किन्तु कालान्तर में जैन परम्परा में भी स्वीकृति हो गई। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में सामान्यतया इन योगिनियों को आत्म साधना में बाधक या विघ्न उपस्थित करने वाली ही माना गया है, किन्तु सम्यक् दृष्टि क्षेत्रपाल (भैरव) के माध्यम से ही इन्हें वशीभूत किया जा सकता है और यही कारण है कि जैन परम्परा में क्षेत्रपाल (भैरव) उपासना और योगिनी-साधना साथ-साथ ही रही है। खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार जिनदत्तसूरि ने भैरव के माध्यम से ही इन ६४ योगिनियों की साधना की थी। भैरवपद्मावतीकल्प में निम्न योगिनी स्तोत्र मिलता हैजिसके आधार पर इन ६४ योगिनियों के नामों की भी जानकारी हो जाती है
चतुःषष्टियोगिनीस्तोत्रम् ऊँ ह्रीं दिव्ययोगी १ महायोगी २ सिद्धयोगी ३ गणेश्वरी ४। प्रताशी ५ डाकिनी ६ काली ७ कालि (ल) रात्रि ८ निशाचरी ६ ।।१।। हुंकारी १० सिद्धवैताली ११ ह्रींकारी १२ भूतडामरी १३| ऊर्ध्वकेशी १४ विरूपाक्षी १५ शुक्लाङ्गी १६ नरभोजिनी १७ ।।२।। षट्कारी १८ वीरभद्रा च १६ धूम्राक्षी २० कलहप्रिया २१। राक्षसी २२ घोररक्ताक्षी २३ विश्वरूपा २४ भयंकरी २५ ।।३।। वैरी २६ कुमारिका २७ चण्डी २८ वाराही २६ मुण्डधारिणी ३० । भास्करी ३१ राष्ट्रटङ्कारी ३२ भीषणी ३३ त्रिपुरान्तका ३४ ।।४।। रौरवी ३५ ध्वंसिनी ३६ क्रोधा ३७ दुर्मुखी ३८ प्रेतवाहिनी ३६ | खट्वाङ्गी ४० दीर्घलंबोष्ठी ४१ मालिनी ४२ मन्त्रयोगिनी ४३ ।।५।। कालिनी ४४ त्राहिनी ४५ चक्री ४६ कंकाली ४७ भुवनेश्वरी ४८ । कटी ४६ निकटी ५० माया च ५१ वामदेवा कपर्दिनी ५२ ।।६।। केशमर्दी च ५३ रक्ता च ५४ रामजंघा ५५ महषिणी ५६ । विशाली ५७ कार्मुकी ५८ लोला काकदृष्टिरधोमुखी ५६ ।।७।। मडोयधारिणी ६० व्याघ्री ६१ भूतादिप्रेतनाशिनी ६२ । भैरवी च महामाया ६३ कपालिनी वृथाङ्गनी ६४ ।।८।। चतुषष्टि: समाख्याता योगिन्यो वरदाः प्रदा।। त्रैलोक्ये पूजिता नित्यं देवमानवयोगिभिः ।।६।। चतुर्दश्यां तथाष्टम्यां संक्रांतौ नवमीषु च ।
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