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४७ जैन देवकुल के विकास में हिन्दू तंत्र का अवदान तक यथावत रूप में चली आ रही है। जैन प्रतिष्ठा विधानों में नवग्रहों की स्थापना और पूजा की इसके दोनों सम्प्रदायों में जीवत परम्परा है और उनका पूजा विधान भी लगभग हिन्दूपरम्परा के समानान्तर है। इससे यह फलित होता है कि जैन परम्परा में नवग्रहों की पूजा-अर्चा का प्रारम्भ ब्राह्मण परम्परा के प्रभाव से हुआ है दोनों परम्पराओं के नवग्रहों के नाम और उनके स्वरूप लक्षण भी प्रायः समान ही हैं। प्रारम्भ में तो जैन धर्म की निवृत्तिमार्गी अस्मिता को ध्यान में रखकर यह कहा गया कि पञ्चपरमेष्ठि के अमुक पद के जाप से अथवा अमुक तीर्थंकर की उपासना से अमुक ग्रह या नक्षत्र का प्रकोप शान्त होता है। इस सम्बन्ध में निम्न गाथा उपलब्ध होती है
ससि-सुक्के अरिहंते, रवि-मंगल सिद्ध, गुरु-बुहा सूरि।
सरस उवज्झाय केउ कमेण साहू सणी-राहू ।।१४ ।।
इस प्रकार यह माना गया कि अरहंत की उपासना से चन्द्र और शुक्र का, सिद्ध की उपासना से सूर्य और मंगल का, आचार्य की उपासना से गुरु और बुध का, उपाध्याय की उपासना से केतु का और साधु की उपासना से शनि और राहु ग्रहों का प्रकोप शान्त हो जाता है।
इसी क्रम में आगे चलकर किस-किस ग्रह की शान्ति के लिये किस किस तीर्थंकर की उपासना की जानी चाहिए ऐसा विचार भी उत्पन्न हुआ और तदनुरूप यह माना गया कि सूर्य के लिये पद्मप्रभु की, चन्द्र के लिये चन्द्रप्रभु की, बुध के लिये वासुपूज्य की अथवा विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, नमि तथा वर्द्धमान जिन की उपासना करनी चाहिए। इसी प्रकर गुरु के दोषों की शांति के लिये ऋषभ, अजित, सुपार्श्व, अभिनन्दन, शीतल, सुमति, संभव और श्रेयांस प्रभु की उपासना करनी चाहिए। शुक्र के लिये सुविधिनाथ और शनि के लिये मुनि सुव्रत की, राहु के लिये नेमिनाथ की और केतु के लिये मल्लि और पार्श्वनाथ की उपासना की जानी चाहिए। इस सन्दर्भ में निम्न ग्रहशान्तिस्तोत्र भी मिलता है
नवग्रहशांति स्तोत्र जगद्गुरुं नमस्कृत्य,श्रुत्वा सद्गुरुभाषितं। ग्रहशांतिं प्रवक्ष्यामि, लोकानां सुखहेतवे।।
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