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________________ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना नवग्रह ४६ तान्त्रिक साधना में विद्यादेवियों, यक्ष-यक्षियों, दिक्पालों आदि की उपासना के साथ-साथ नवग्रह की उपासना भी प्रचलित रही है। जनसामान्य का यह विश्वास रहा है कि विभिन्न ग्रहों और नक्षत्रों का प्रभाव व्यक्ति की जीवन-यात्रा पर पड़ता है और उसके आधार पर ही उसके जीवन में अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। दूसरे शब्दों में ग्रह और नक्षत्रों के द्वारा व्यक्ति का जीवन चक्र निर्धारित होता है । जहाँ विज्ञान ने ग्रह-नक्षत्रों को आकाशीय पिण्ड माना है, वहाँ अन्य भारतीय परम्पराओं के समान ही जैन परम्परा ने ग्रह-नक्षत्रों को एक देवता के रूप में माना है तथा पिण्डों को उन देवों का आवास स्थल माना है । इसीलिये वैयक्तिक जीवन की विपत्तियों की समाप्ति और सुख समृद्धि की प्राप्ति के लिये इन ग्रह-नक्षत्रों की उपासना भी प्रारम्भ हुई। यद्यपि ग्रह नक्षत्रों की इस उपासना का मूलभूत प्रयोजन वैयक्तिक जीवन में विपत्तियों के शमन के द्वारा भौतिक कल्याण अर्थात् इहलौकिक सुख-सुविधाओं की प्राप्ति ही रहा है । 1 चूँकि जैनधर्म मूलतः निवृत्तिप्रधान धर्म है इसलिये प्रारम्भिक जैन-ग्रन्थों में नवग्रहों की पूजा-उपासना के कोई उल्लेख नहीं मिलते हैं। ग्रह-नक्षत्रों के प्रभाव के सम्बन्ध में जो प्राचीनतम उल्लेख उपलब्ध हैं, वे सूर्य-प्रज्ञप्ति (ईसा पूर्व तीसरी - दूसरी शती) के हैं। उसमें यह बताया गया है कि किस प्रकार के नक्षत्र में किस प्रकार की वस्तुओं का सेवन करने से कार्य सिद्ध होता है । फिर भी ये उल्लेख न तो निवृत्तिमार्गी एवं अहिंसाप्रधान जैन धर्म की दृष्टि से उचित प्रतीत होते हैं और न उसमें इनका धर्म-कृत्य के रूप में उल्लेख है, यह मात्र लौकिक मान्यता का प्रस्तुतीकरण है। यद्यपि जैन आगम साहित्य में चन्द्र, सूर्य आदि की देवों के रूप में स्वीकृति तो अवश्य है, किन्तु लौकिक मंगल के लिये उनकी पूजा-उपासना के कोई उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध नहीं होते हैं। यह सत्य है कि प्राचीन जैन आगमों में न केवल निमित्तविद्या के उल्लेख उपलब्ध होते हैं अपितु यह भी निर्देश है कि केवल गृहस्थ ही नहीं, किन्तु कुछ मुनि एवं आचार्य भी निमित्तशास्त्र में पारंगत होते थे। यद्यपि निमित्त - शास्त्रों का सम्बन्ध -नक्षत्रों से भी रहा है फिर भी निवृत्ति प्रधान प्रारम्भिक जैन धर्म में ग्रहों की उपासना के कोई निर्देश नहीं मिलते। ग्रह यह सुनिश्चित है कि जैन तान्त्रिक साधना के पूजा-अर्चा विधान में नवग्रहों की पूजा-उपासना की परम्परा लगभग आठवीं शती से वर्तमान काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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