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________________ ४५ जैन देवकुल के विकास में हिन्दू तंत्र का अवदान लोकान्तिक देव दिक्पाल और लोकपाल से मिलती जुलती एक अवधारणा लोकान्तिक देवों की भी मिलती है। लोकान्तिक देवों की यह अवधारणा समवायांग जैसे आगमों और तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ में उपस्थित होने से प्राचीन प्रतीत होती है। तत्त्वार्थसूत्र में जिन लोकान्तिक देवों का उल्लेख है, वे इसप्रकार हैं- (१) सारश्वत (२) आदित्य (३) वनि (४) वरुण (५) गर्दतोय (६) तूषित (७) अव्याबाध और (८) अरिष्ट । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आगमों में लोकान्तिक देवों की संख्या के संदर्भ में आठ और नौ के उल्लेख मिलते हैं। स्वयं स्थानांग में भी आठवें स्थान में आठ लोकान्तिक देवों की और नौवें स्थान में नौ लोकान्तिक देवों का उल्लेख मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरमान्य पाठ में नौ लोकान्तिक देवों का उल्लेख है, उसमें मरुत् नाम अधिक है इससे यह लगता है कि इनकी संख्या में विकास हुआ है। तिलोयपण्णति और राजवार्तिक में भी तो दो लोकान्तिक देवों की कल्पना की गई है। लोकान्तिक देव तीर्थंकर की दीक्षा के पूर्व उनके सामने उपस्थित होकर उन्हें वैराग्य के लिए प्रेरित करते हैं। इन देवों में विषय-रति (काम-वासना) न होने से ये देवर्षि' भी कहलाते हैं। पुनः ये देव एक भव अवतारी होते हैं अर्थात् देवलोक से च्युत होकर मनुष्य जीवन को प्राप्त कर धर्म-साधना से मुक्ति को प्राप्त होते हैं। इसलिए जैन परम्परा में इन्हें अधिक आदर की दृष्टि से देखा जाता है। इनका निवास स्थान भी आठों दिशाओं में और नौवें अरिष्ट का उनके मध्य में होने से लोकान्तिक देवों की अवधारणा की कुछ समानता दिक्पालों या लोकपालों की अवधारणा से है। फिर भी अधिकांश नामों की भिन्नता को लेकर यही मानना होगा कि इनकी अवधारणा दिक्पालों और लोकपालों से भिन्न ही है। ये लोकान्तिक देव भी दिक्पालों या लोकपालों के समान ही प्रत्येक दिशा, प्रत्येक विदिशा और मध्यभाग में निवास करते हैं, जैसे पूर्वोत्तर अर्थात् ईशानकोण में सारस्वत, पूर्व में आदित्य, पूर्व-दक्षिण (अग्निकोण) में वनि, दक्षिण में वरुण, दक्षिणपश्चिम (नैर्ऋत्यकोण) में गर्दतोय, पश्चिम में तुषित, पश्चिमोत्तर (वायव्यकोण) में अव्याबाध, उत्तर में मरुत् और बीच में अरिष्ट । इनके सारस्वत आदि नाम विमानों के नाम के आधार पर प्रसिद्ध हैं। पंचकल्याणक आदि में दीक्षा कल्याणक के समय लोकान्तिक देवों के आह्वान एवं पूजन का निर्देश है। ज्ञातव्य है कि जहाँ लोकपालों/दिक्पालों की अवधारणा हिन्दू परम्परा से प्रभावित है वहां लोकान्तिक देवों की अवधारणा जैनों की अपनी अवधारणा है। इसमें उसके निवृत्तिपरक तत्त्वों को सुरक्षित रखा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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