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२९ जैन देवकुल के विकास में हिन्दू तंत्र का अवदान कल्याण करने में सक्षम नहीं है। किन्तु जनसाधारण तो आर्त या अर्थार्थी भक्त के रूप में ही एक ऐसे आराध्य की उपासना करना चाहता है जो उसके जागतिक कष्टों एवं संकटों का निवारण कर सके, और उसकी ऐहिक आकांक्षाओं की पूर्ति कर सके। फलतः जैन आचार्यों को अपने देवमण्डल में ऐसे देवी देवताओं को सम्मिलित करना पड़ा जो जिन भक्तों को जागतिक कष्टों से मुक्ति दिला सकें और उनकी लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति कर सकें।
यद्यपि जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकरों के साथ-साथ १२ चक्रवर्ती, ६ बलदेव, ६ वासुदेव और ६ प्रतिवासुदेव ऐसे ६३ शलाका पुरुषों का उल्लेख मिलता है, किन्तु उसमें २४ तीर्थंकरों के अतिरिक्त मात्र बाहुबली एवं भरत को छोड़कर अन्य चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव को उपास्य या आराध्य माना गया हो ऐसा कहीं ज्ञात नहीं होता है। श्वेताम्बर परम्परा की तान्त्रिक साधना में बाहुबली से सम्बन्धित कुछ मंत्र उपलब्ध होते हैं किन्तु श्वेताम्बर मन्दिरों में भरत और बाहुबली की प्रतिष्ठित मूर्तियों का प्रायः अभाव ही है, जबकि दिगम्बर परम्परा में इनकी प्रतिष्ठित स्वतन्त्र मूर्तियाँ और उनके पूजा विधान उपलब्ध होते
हैं।
यद्यपि जैनों ने इन तिरसठ शलाका पुरुषों में राम और कृष्ण को भी समाहित किया है और जैन आचार्यों के द्वारा इनके जीवन-वृत्त को आधार बनाकर अनेक ग्रंथ भी लिखे गये हैं तथा कुछ जैन मंदिरों में बलराम-कृष्ण एवं राम-सीता के शिल्पांकन भी हुए हैं, किन्तु इन्हें किसी भी जैन मंदिर में पूजा और उपासना के लिए प्रतिष्ठित किया गया हो ऐसा संकेत नहीं मिलता। जैनों के अनुसार राम 'सिद्ध हैं और कृष्ण भावी तीर्थंकर या अर्हत् हैं। केवल उन जिन मंदिरों में जहाँ भावी तीर्थंकरों की मर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं, कृष्ण की प्रतिष्ठा और पूजा भावी तीर्थंकर के रूप में होती है, किन्तु अन्य तीर्थंकरों के समान उन्हें भी भक्तों के भौतिक हित साधन में अक्षम ही माना गया है। अतः राम या कृष्ण में विष्णु के अवतार के रूप में भक्तों के हित करने की जो सम्भावनाएँ हिन्दू धर्म में हैं वे जैन धर्म में नहीं हैं। फलतः भक्तों के जागतिक संकटों के निवारण के लिए जैन परम्परा में सर्वप्रथम जिन शासन रक्षक यक्ष-यक्षियों की कल्पना की गई।
जैन परम्परा के अनुसार तीर्थंकर तो मुक्त आत्माएँ हैं, किन्तु यक्ष-यक्षी बद्ध संसारी जीवों में आते हैं, उनके अनुसार संसारी जीवों के चार वर्ग हैं१. देव, २. मनुष्य, ३. तिर्यंच और ४. नारक। पुनः दवों के भी पाँच वर्ग हैं१. लोकोत्तर देव, २. वैमानिकदेव, ३. ज्योतिष्कदेव, ४. व्यन्तरदेव और ५. भवनवासी
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