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________________ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना २२ देव। इनमें वैमानिकों में इन्द्र दस प्रकार देव आदि, ज्योतिष्कों में सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि, व्यन्तरों में भूत-प्रेत आदि और भवनवासियों में यक्ष-यक्षी को जैन तांत्रिक साधना में उपास्य माना जाता है। ये सभी पाँचों प्रकार के देव पुनः दो कोटियों में विभक्त है- सम्यक दृष्टि और मिथ्या दृष्टि । इनमें मिथ्या दृष्टि देव जैसे- भूत-प्रेत, योगिनियाँ आदि उपासक के भौतिक कल्याण में समर्थ होकर भी उसकी आध्यात्मिक साधना में बाधक ही होते हैं। मिथ्यादृष्टि देवों का प्रयत्न यही होता है कि वे साधक को उसकी आध्यात्मिक साधना से च्युत करें। जबकि सम्यक दृष्टि देव न केवल उसकी आध्यात्मिक साधना में आने वाली बाधाओं को दूर करते हैं अपितु उस जिन उपासक का भौतिक मंगल भी करते हैं। जिनशासन रक्षक यक्ष-यक्षियों एवं क्षेत्रपालों के रूप में कुछ भैरव भी सम्यक दृष्टि माने जाते हैं। यद्यपि समवायांग (चतुर्थ-पंचम शती) की सूची में तीर्थंकरों, उनके माता-पिता, जन्म-नगर, चैत्य वृक्ष आदि का उल्लेख तो है किन्तु उसमें उनके यक्ष-यक्षियों का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। यक्ष-यक्षियों का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में कहावली (११-१२वीं शती) और प्रवचनसारोद्धार (१४वीं शती) में मिलता है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा में तिलोयपण्णत्ति (लगभग छठी-सातवीं शती) में इनका उल्लेख मिलता है, किन्तु विद्वानों की दृष्टि में यह अंश बाद में प्रक्षिप्त है। यद्यपि चक्रेश्वरी, अम्बिका, पद्मावती आदि के अंकन और स्वतंत्र मूर्तियाँ लगभग नवीं शताब्दी में मिलने लगती हैं, किन्तु २४ तीर्थंकरों के २४ यक्षों एवं २४ यक्षियों की स्वतंत्र लाक्षणिक विशेषताएँ लगभग ११-१२ वीं शताब्दी में ही निर्धारित हुई हैं। यक्ष-यक्षियों की मूर्तियों के लक्षणों का उल्लेख इस काल के त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, प्रतिष्ठासारसंग्रह, निर्वाणकलिका आदि कई ग्रंथो में मिलता है। इनमें यक्ष-यक्षियों की चर्चा जिनशासन रक्षक देवता के रूप में मिलती है। यह माना गया है कि अपनी तथा अपने तीर्थंकर की पूजा, उपासना आदि से प्रसन्न होकर ये यक्ष-यक्षियां जिनभक्तों को दैहिक, दैविक और भौतिक संकटों से त्राण दिलाती ये यक्ष-यक्षी अपनी पूर्व साधना के आधार पर देव रूप में जन्में हैं। यद्यपि ये कल्पवासी और कल्पातीत वैमानिक देवों की अपेक्षा निम्न श्रेणी के हैं-फिर भी जिनभक्तों का कल्याण करने में समर्थ हैं। यह ध्यातव्य है कि जैन धर्म में यक्ष-यक्षियों की उपासना को मान्यता लगभग छठी-सातवीं शताब्दी के पश्चात् ही तंत्र के प्रभाव से मिली। किन्तु इसके पूर्व भी जैन परम्परा में श्रुतदेवी के रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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