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अध्याय २
जैन देवकुल के विकास में हिन्दू तंत्र का अवदान
वैसे तो प्रत्येक साधना पद्धति में किसी आराध्यदेवता का होना आवश्यक होता है, किन्तु तान्त्रिक साधना में तो आराध्य देवता का सर्वाधिक महत्त्व है। इन आराध्य देवों के भेद के आधार पर ही शैव, शाक्त, वैष्णव, सौर्य, गाणपत्य, बौद्ध, जैन आदि तन्त्रों के भेद भी अस्तित्व में आये हैं। जैनों ने अर्हत् (अरहंत), जिन या तीर्थंकर को ही अपना आराध्य देव माना है। उनके अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी काल में २४ तीर्थंकर हुए हैं। यद्यपि जैन साधना में किसी भी तीर्थंकर को आराध्य बनाया जा सकता है, फिर भी जैन तांत्रिक साधनाओं में मुख्य रूप से तेइसवें तीर्थंकर पार्श्व को ही आराध्य बनाया जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से चौबीस तीर्थंकरों में से महावीर, पार्श्व, अरिष्टनेमि और ऋषभ इन चार तीर्थंकरों के ही साहित्यिक उल्लेख एवं मूर्तियां अधिक प्राप्त होती हैं। उनमें भी सर्वाधिक मूर्तियाँ पार्श्व से ही संबंधित हैं, फिर भी ईसा की प्रथम शताब्दी या इससे भी कुछ पूर्व से चौबीस तीर्थंकरों की पूर्ण सूची हमें उपलब्ध होने लगती है। सर्वप्रथम यह सूची समवायांग के परिशिष्ट में हमें उपलब्ध होती है। इसके बाद न केवल भरतक्षेत्र के भूत एवं भावी तीर्थंकरों की, अपितु महाविदेह, ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों क्री सूचियाँ भी मिलती हैं। वर्तमान तीर्थंकरों की उपासना की अपेक्षा से इनमें सीमंधर स्वामी को अधिक महत्त्व मिला है।
यह सत्य है कि जैन परम्परा में अपने आराध्य के रूप में तीर्थंकरों को सर्वोपरि स्थान दिया गया है किन्तु वे साधना के मात्र आध्यात्मिक आदर्श हैं। दैवीय कृपा का सिद्धान्त या भगवान के द्वारा भक्त के भौतिक कल्याण की अवधारणा जैनों को स्वीकार्य नहीं थी। अतः तीर्थंकर को जनसाधारण की भक्ति से प्रसन्न होकर उसके दैहिक, दैविक और भौतिक पीड़ाओं एवं दुःखों को समाप्त करने में असमर्थ ही माना गया। गीता के कृष्ण के समान जैन तीर्थंकर यह आश्वासन नहीं दे सकता कि 'तुम मेरी भक्ति करो मैं तुम्हें सब पीड़ाओं से और दुःखों से मुक्त कर दूंगा'। जैन तीर्थंकरों के उपदेश का सार तो यही था कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही अपना भाग्य-निर्माता है और स्वकृत कर्मों के फल भोग के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है। उनके अनुसार व्यक्ति स्वयं अपने सुख-दुःखों का कर्ता और भोक्ता होता है। कर्म-नियम की सर्वोपरिता और मुक्तात्मा में दूसरों का हित-अहित करने की असम्भावना-ये दो ऐसे तथ्य हैं जिनके कारण तीर्थंकर आराध्य अथवा आध्यात्मिक पूर्णता का आदर्श होकर भी अपने भक्तों का भौतिक
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