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________________ १९ तन्त्र - साधना और जैन जीवनदृष्टि मेरी दृष्टि में जैन परम्परा में तांत्रिक साधनाओं का जो उद्भव और विकास हुआ है, वह मुख्यतः दो कारणों से हुआ है। प्रथम तो यह कि जब वैयक्तिक साधना की अपेक्षा संघीय जीवन को प्रधानता दी गई तो संघ की रक्षा और अपने श्रावक भक्तों के भौतिक कल्याण को भी साधना का आवश्यक अंग मान लिया गया। दूसरे तंत्र के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण जैन आचार्यों के लिए यह अपरिहार्य हो गया था कि वे मूलतः निवृत्तिमार्गी और आत्मविशुद्धिपरक इस धर्म को जीवित बनाए रखने के लिए तांत्रिक उपासना और साधना पद्धति को किसी सीमा तक स्वीकार करें, अन्यथा उपासकों का इतर परम्पराओं की ओर आकर्षित होने का खतरा था । अध्यात्म के आदर्श की बात करना तो सुखद लगता है किन्तु उन आदर्शों को जीवन में जीना सहज नहीं है। जैन धर्म का उपासक भी वही व्यक्ति है जिसे अपने लौकिक और भौतिक मंगल की आकांक्षा रहती है। जैन धर्म को विशुद्ध रूप से मात्र आध्यात्मिक और निवृत्तिमार्गी बनाए रखने पर भक्तों या उपासकों के एक बड़े भाग के जैन धर्म से विमुख हो जाने की सम्भावनाएँ थीं । इन परिस्थितियों में जैन आचार्यों की यह विवशता थी कि वे उनके अनुयायियों की श्रद्धा जैनधर्म में बनी रहे इसके लिए उन्हें यह आश्वासन दें कि चाहे तीर्थंकर उनके, लौकिक-भौतिक कल्याण को करने में असमर्थ हों, किन्तु उन तीर्थंकरों के शासन रक्षक देव उनका लौकिक और भौतिक मंगल करने में समर्थ हैं। जैन ट्रेवमण्डल में विभिन्न यक्ष-यक्षियों, विद्यादेवियों, क्षेत्रपालों, आदि को जो स्थान मिला, उसका मुख्य लक्ष्य तो अपने अनुयायियों की श्रद्धा जैनधर्म में बनाए रखना ही था । यही कारण था कि आठवीं नौवीं शताब्दी में जैन आचार्यों ने अनेक तांत्रिक विधि-विधानों को जैनसाधना और पूजापद्धति का अंग बना दिया। यह सत्य है कि जैन साधना में तांत्रिक साधना की अनेक विधाएँ क्रमिक रूप से विकसित होती रही हैं, किन्तु यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव का परिणाम थीं, जिसे जैन धर्म के उपासकों की निष्ठा को जैन धर्म में बनाए रखने के लिए स्वीकार किया गया था। जैन आचार्यों ने विभिन्न देवी-देवताओं, उनकी पूजा और उपासनाओं की पद्धतियों तथा पूजा उपासना के विभिन्न मंत्रों और यंत्रों का विकास किस प्रकार किया इसकी चर्चा करने के पूर्व सर्वप्रथम तो हम यह देखेंगे कि विविध हिन्दू, विशेष रूप से तन्त्र साधना के उपास्य देवी-देवताओं का प्रवेश जैनदेवमण्डल में किस प्रकार हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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