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जैन धर्म का तंत्र साहित्य सूरिमन्त्रबृहद्कल्पविवरण
यह ग्रन्थ जिनप्रभसूरि द्वारा ई० सन् १३०८ में निर्मित हुआ है। इसमें पांच मुख्य प्रकरण हैं- १. विद्यापीठ, २. विद्या, ३. उपविद्या, ४. मंत्रपीठ और, ५. मन्त्रराज। इसमें सूरिमन्त्र की जापविध इसका फल, साधनाविधि, तपविधि, स्वआम्नाय मंत्रशुद्धि, सूरिमंत्र अधिष्ठायकमंत्रसिद्धि एवं मुद्राओं का वर्णन किया गया है। देवता अवसर विधि
यह कृति मन्त्रराजरहस्य के पंचम परिशिष्ट के रूप में प्रकाशित हुई है। इसके अन्त में लेखक का नाम नहीं है। श्री दैवोत में जैन मंत्रशास्त्रों की परम्परा एवं स्वरूप नामक लेख में इसे जिनप्रभसूरि की कृति माना है। मेरी दृष्टि में यह जिनप्रभसूरि की कृति न होकर सिंहतिलकसूरि की ही कृति होनी चाहिए। किन्तु कृति के अन्त में नामनिर्देश के अभाव में कुछ भी कहना कठिन है। इस कृति में निम्न २० अधिकारों का विवेचन है
१. भूमिशुद्धि, २. अंगन्यास, ३. सकलीकरण, ४. दिग्पाल आह्वान, ५. हृदयशुद्धि, ६. मन्त्र-स्नान, ७. कल्मषदहन, ८. पंचपरमेष्ठिस्थापना, ६. आहानन, १०. स्थापना, ११. सन्निधानं, १२. सन्निरोध, १३. अवगुण्ठन, १४. छोटिका प्रदर्शन, १५. अमृतीकरण, १६. जाप, १७. क्षोभण, १८. क्षमण, १६. विसर्जन और २०. स्तुति ।
इस कृति में इन २० अधिकारों से संबंधित मन्त्रों का भी निर्देश है। देवपूजाविधि
यह कृति जिनप्रभसूरि द्वारा प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में रचित है। इस कृति में सर्वप्रथम प्राकृत भाषा में ग्रह प्रतिमा पूजा विधि एवं चैत्यवंदन विधि, का विवरण पादलिप्त सूरि की निर्वाणकलिका से लिया गया है। इसके पश्चात् संस्कृत भाषा में स्नपन विधि, पञ्चामृत स्नानविधि, चैत्यवंदनविधि और शांतिपर्वविधि का उल्लेख हुआ है। मायाबीजकल्प
यह प्रति श्री सोहनलाल देवोत के निजी संग्रह में उपलब्ध है। उनकी सूचना के अनुसार यह कृति भी जिनप्रभसूरि द्वारा रचित है। इस कृति में मायाबीज 'ही' को सिद्ध करने संबंधी सम्पूर्ण विधि विधान विवेचित हैं। इसमें सर्वप्रथम इसकी साधना के लिये अपेक्षित शुक्लपक्ष की पूर्णातिथि का तथा साधना
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