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३५१ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना प्रकरण, १६. द्विपदादि द्रव्य दिक् प्रकरण, १७. नष्टिकाचक्र, १८. चिन्ताभेद प्रकरण, १६. लेखगंडिकाधिकार संख्या प्रमाण, २०. काल प्रकरण, २१. लाभगंडिका प्रकरण २२. वर्गगंडिका, २३. नक्षत्रगंडिका, २४. व्यंजन विभाग, २५. स्ववर्गसंयोगकरण, २६. परवर्गसंयोगकरण, २७. सिंहावलोकितकरण, २८. चतुर्भेद गजविलुलित, २६. गुणाकार प्रकरण, ३०. उत्तराधर विभाग प्रकरण, ३१. स्ववर्ग प्रकरण, ३२. व्यंजन-स्वर प्रकरण, ३३. स्वभावप्रकृति, ३४. उत्तराधरसंपत्करण, ३५. वर्गाक्षरसंयोगोत्पादन, ३६.सर्वतोभद्र, ३७. संकट-विकट प्रकरण, ३८. अंग संबंधी अस्त्र विभाग प्रकरण, ३६. स्वरक्षेत्रभवन, ४०. तिथिनक्षत्रकांड,४१. व्याधि-मृत्युविषयक प्रश्न,
उवसग्गहरस्तोत्र (लगभग छठी शती)
उवसग्गहरस्तोत्र प्राकृत में निबद्ध मात्र पांच गाथाओं का छोटा सा स्तोत्र है इसके रचयिता आचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं किन्तु मेरी दृष्टि में ये भद्रबाहु वराहमिहिर के भाई द्वितीय भद्रबाहु हैं जिनका काल लगभग छठी शताब्दी माना जाता है। इस स्तोत्र में पार्श्वनाथ और उनके यक्ष पार्श्व की स्तुति करते हुए उनसे ज्वर आदि रोग और सर्पदंश आदि की पीड़ाओं से मुक्त करने की प्रार्थना की गयी है। इसकी प्रत्येक गाथा पर यंत्र-मंत्रगर्भित टीकाएँ लिखी गयी हैं। जैनमंत्रसाहित्य में इस लघु कृति का विशिष्ट स्थान है। भक्तामरस्तोत्र (लगभग ७वीं शती)
यह मानतुंगाचार्य (लगभग ७वीं शती) विरचित ४४ या ४८ श्लोक परिमाण एक लघु कृति है। यद्यपि यह स्तोत्र मूलतः ऋषभदेव की स्तुति के रूप में लिखा गया है किन्तु इसकी संकटदूर करने वाली शक्ति पर जैन साधकों का अटूट विश्वास है। इसके प्रत्येक श्लोक पर ऋद्धि, मंत्र एवं यन्त्र से गर्भित टीकाएँ भी मिलती है। विषापहार स्तोत्र (७वीं शती)
यह ४० श्लोकों की एक लघु कृति है। इस स्तोत्र के रचयिता महाकवि धनञ्जय लगभग सातवीं शती में हुए हैं। इस स्तोत्र पर भी ऋद्धि, मंत्र और यंत्र गर्भित अनेक टीकाएँ मिलती हैं। श्वेताम्बर परम्परा में यह स्तोत्र विशेष रूप से प्रचलित है। ज्वालामालिनीकल्प (१०वीं शती)
यह जैन परम्परा के मंत्र शास्त्र का एक प्रमुख ग्रन्थ माना जाता है
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