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________________ ३५२ जैन धर्म का तंत्र साहित्य इसके रचयिता इन्द्रनन्दि हैं जिन्होंने १०वीं शती में इस ग्रन्थ की रचना की थी। इसमें कुल ६ परिच्छेद हैं-प्रथम परिच्छेद में साधक की योग्यता की चर्चा की गयी है। द्वितीय परिच्छेद में दिव्य-अदिव्य ग्रहों की चर्चा है। तृतीय परिच्छेद में सकलीकरण, ग्रह-निग्रह-विधान, बीजाक्षरों के ज्ञान का महत्त्व, पल्लवों का वर्णन और साधना की साधारण विधि बतलायी गयी है । चतुर्थ परिच्छेद में सामान्य मण्डल, सर्वतोभद्र मण्डल, समय मण्डल, सत्य मण्डल, आदि की चर्चा है। पंचम परिच्छेद में भूताकंपन तेल की निर्माण विधि का वर्णन है। षष्ठ परिच्छेद में सर्वरक्षायन्त्र, ग्रहरक्षकयंत्र, पुत्रदायक यन्त्र, वश्ययन्त्र, मोहनयन्त्र, स्त्रीआकर्षणयन्त्र, क्रोधस्तम्भनयन्त्र, सेनास्तम्भनयन्त्र, पुरुषवश्ययन्त्र, शाकिनी भयहरणयन्त्र, सर्वविघ्नहरणयन्त्र आदि की चर्चा की गयी है। सप्तम परिच्छेद में विभिन्न प्रकार के वशीकरणकारक तिलक, अंजन, तेल आदि का एवं सन्तानदायक औषधियों का वर्णन किया गया है । अष्टम परिच्छेद में वसुधारा नामक देवी के स्नान, पूजन आदि की विधि बतलायी गयी है। नवम परिच्छेद में नीरांजन विधि है। दशम परिच्छेद में शिष्य को विद्या देने की विधि, ज्वालामालिनी साधनविधि, और ज्वालामालिनी स्तोत्र तथा ब्राह्मी आदि अष्टदेवियों के पूजन, जप एवं हवन विधि, ज्वालामालिनी मालायन्त्र, वश्य मन्त्र एवं तंत्र आदि के उल्लेख हैं। निर्वाणकलिका (१०–११वीं शती) यह पादलिप्तसूरि की रचना मानी जाती है किन्तु ये पादलिप्त सूरि आर्यरक्षित (२री शती) के समकालीन एवं उनके मामा पादलिप्त सूरि से भिन्न हैं। ये सम्भवतः दशवीं-ग्यारहवीं शती के आचार्य हैं। श्वेताम्बर परम्परा में यक्षी (देवी) उपासना का यह प्रथम ग्रन्थ है। इसमें विभिन्न यक्ष-यक्षियों के लक्षण आदि का विस्तार से विवेचन है। इसके पूर्व बप्पभट्टिसूरि (हवीं शती) की चतुर्विंशिका में इनके नाम निर्देश मात्र उपलब्ध हैं, किन्तु उनके लक्षण, पूजा विधान आदि का विस्तृत विवरण नहीं है। अतः जैन परम्परा में तंत्र के प्रभाव को परिलक्षित करने वाला यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। मन्त्राधिराजकल्प (१२वीं शती) जैसा की इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह नमस्कारमंत्र की तांत्रिक साधना से संबंधित एक कृति होगी। इसके कर्ता सागरचन्द्रसूरि हैं। इसकी पाण्डुलिपि एल०डी० इन्स्टीच्यूट आफ इण्डोलाजी, अहमदाबाद में उपलब्ध है। मन्त्रराजरहस्यम् (१३वीं शती) यह कृति सिंहतिलकसूरि द्वारा ई०सन् १२७० में निमित्त की रची गयी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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