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________________ ३४६ तान्त्रिक साधना के विधि-विधान पालन करने की प्रतिज्ञा लेता है । इन प्रतिज्ञाओं में वह सर्वप्रथम त्रसजीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा करने का त्याग करता है। इसी क्रम में वह पाँच प्रकार के असत्यवचन, चोरी, व्यवसाय में अप्रामाणिकता आदि का भी त्याग करता है । कामवासना के विषय में स्वपति या स्वपत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी से यौन सम्बन्धों का त्याग करता है । अपने परिग्रह की मर्यादा करता है। व्यवसाय के क्षेत्र में क्षेत्र एवं भोग-उपभोग के पदार्थों की सीमा का निर्धारण करता है एवं आवश्यकता से अधिक द्रव्य संग्रह तथा भोग-उपभोग की सामग्री के संग्रह और . निष्प्रयोजन क्रियाकलापों (अनर्थदण्ड) आदि का त्याग करता है। इसके साथ ही समभाव की साधना, उपवास एवं दान संबंधी प्रतिज्ञाएँ ग्रहण करता है। जैन परम्परा के अनुसार कोई भी व्यक्ति सम्यक्त्व ग्रहण के पश्चात् अपनी स्वेच्छा से गृहस्थ धर्म या मुनिधर्म किसी का भी चयन करता है । मुनि दीक्षा में साधक सर्वप्रथम हिंसादि पापकर्मों का सम्पूर्ण रूप से वर्जन करके समभाव की साधना का व्रत ग्रहण करता है। इसे छुल्लक दीक्षा या सामायिक चारित्र कहते हैं। तत्पश्चात् उसका व्रतारोपण होता है। इसमें वह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैसे पाँच महाव्रतों के पालन का नियम ग्रहण करता है। इसे मुनि दीक्षा या छेदोपस्थापनीय चारित्र (बड़ी दीक्षा) कहते हैं। मुनिदीक्षा के पश्चात् दीक्षार्थी की योग्यता, आयु, दीक्षाकाल आदि के आधार पर योगोद्वहन संबंधी दीक्षा विधि होती है। इसमें साधक विभिन्न प्रकार की तप- साधना के साथ आगमिक ग्रन्थों का अध्ययन एवं विद्याओं की साधना प्रारम्भ करता है। आगमों का अध्ययन सम्पन्न होने पर योग्यता के अनुरूप उसे गणि, उपाध्याय, आचार्य आदि पदों पर अभिषिक्त करने की विधि सम्पन्न की जाती है। इस अवसर पर वह सूरिमंत्र आदि की विशिष्ट साधना भी करता है । इसे पदस्थापना या पदाभिषेक भी कहा जाता है। इसके पश्चात् जीवन की अन्तिम संध्या में साधक पुनः पूर्वपदों का त्याग करके नवीन दीक्षा ग्रहण कर समाधिमरण की साधना करता है। जैन आगमों और प्रारम्भिक आगमिक व्याख्याओं को देखने से ऐसा लगता है कि इन विविध प्रकार की दीक्षाओं के लिए किसी प्रकार का कोई भी कर्मकाण्ड नहीं था । प्रतिज्ञाग्रहण करने के पूर्व ईर्यापथ - आलोचना, कायोत्सर्ग, जिनस्तवन, चैत्यवंदन एवं गुरुवंदन जैसी सामान्य क्रियाएँ की जाती थीं। इसके पश्चात् गुरु शिष्यों को अपेक्षित प्रतिज्ञा ग्रहण करवाता था । प्राचीन आगमों के अध्ययन के लिए भी किसी विशिष्ट प्रकार की तप-साधना या क्रियाकाण्ड के कोई उल्लेख नहीं मिलते। जहाँ तक मेरी जानकारी है हरिभद्र (८वीं शती) और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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