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________________ ३४७ जैनधर्म और तांत्रिक साधना उनके द्वारा उद्धृत महानिशीथसूत्र के पूर्व तक इन विभिन्न प्रकार की दीक्षाओं से संबंधित किसी कर्मकाण्ड का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। भारत में तंत्र साधना का प्राबल्य बढ़ने के साथ ही लगभग ५वीं-छठी शती से जैन परम्परा में प्रकीर्ण रूप से कुछ कर्मकाण्डों का विकास हुआ। जहाँ तक मेरा अध्ययन और अनुभव है, जैन परम्परा में कर्मकाण्ड का प्रवेश विशेष रूप से सातवीं-आठवीं शती के बाद ही प्रारम्भ हुआ है। सर्वप्रथम पादलिप्तसूरि की निर्वाणकलिका से ही हमें इस प्रकार के कर्मकाण्ड का उल्लेख मिलने लगता है। ज्ञातव्य है कि ये पादलिप्तसूरि आर्यरक्षित के मातुल पादलिप्तसूरि (ईसा की प्रथम-द्वितीय शती) से भिन्न विद्याधरकुल के मण्डन गणि के शिष्य थे। इनका काल लगभग ६५० ई० है। निर्वाणकलिका में जिस कर्मकाण्ड का उल्लेख है वह तंत्र से प्रभावित है और लगभग १०वीं शताब्दी की रचना है। क्योंकि आठवीं शताब्दी के पूर्व की आगमिक व्याख्याओं में आचार्य हरिभद्र के पंचाशक आदि के प्रकरणों में जिन दीक्षा विधि, जिन भवन निर्माण, जिन यात्रा विधि आदि में ऐसा जटिल कर्मकाण्ड नहीं पाया जाता है, जो कि निर्वाणकलिका (१०वीं शती), मन्त्रराजरहस्य (१४वीं शती) विधिमार्गप्रपा (१४वीं शती) आचार दिनकर (१५वीं शती), प्रतिष्ठासार संग्रह, प्रतिष्ठादीक्षाकुण्डलिका, प्रतिष्ठाविधान, प्रतिष्ठासार, मंत्राधिराजकल्प आदि ग्रन्थों में पाया जाता है। मेरी तो यह स्पष्ट मान्यता है कि जैन परम्परा में दीक्षा, प्रतिष्ठा, पूजा और मन्त्र-यन्त्र साधना-संबंधी जो भी कर्मकाण्ड आया है वह हिन्दू और बौद्ध तांत्रिक परम्पराओं से प्रभावित है और लगभग १०वीं और ११वीं शताब्दी से अस्तित्व में आया है। इन कर्मकाण्डों के विधि-विधान यद्यपि जैन परम्परा के अनुरूप बनाए गए हैं फिर भी इन विधि विधानों और तत्संबंधी मंत्रों पर उन तांत्रिक परम्पराओं का प्रभाव स्पष्टतः परिलक्षित होता हैं। मात्र यही नहीं, कहीं-कहीं तो ये विधिविधान जैनधर्म की मूलभूत मान्यताओं के विपरीत भी हैं। आज पुनः पूर्वाचार्यों के इन विधि-विधानों की गम्भीर समीक्षा अपेक्षित है। जैनधर्मकी स्थानकवासी एवं तेरापन्थी परम्पराओं में इस प्रकार का जटिल विधान प्रचलित नहीं है किन्तु श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में विभिन्न दीक्षाओं के प्रसंग में तन्त्र से प्रभावित . दीक्षा सम्बन्धी विधि-विधान परिलक्षित होते हैं जिनकी चर्या निर्वाणकलिका, विधिमार्गप्रपा आदि में विस्तार से उपलब्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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