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________________ ३४५ जैनधर्म और तांत्रिक साधना ग्रन्थ के पूजाविधान नामक तीसरे अध्याय में की है। अतः यहां पुनः इनकी विस्तृत चर्चा में जाने का कोई औचित्य नहीं है। इसी क्रम में हमने हिन्दू परम्परा में प्रचलित पञ्चोपचार और षोड्शोपचार पूजा के स्थान पर जैन परम्परा में प्रचलित अष्ट प्रकारी और सत्तरह भेदी पूजा का भी उल्लेख किया है। इच्छुक पाठक उन्हें वहां देख सकते हैं। इन पञ्चोपचार संबंधी मंत्रों में इष्ट देवता के नाम को छोड़कर सामान्यतया हिन्दू तांत्रिक परम्परा और जैन तांत्रिक परम्परा में कोई अंतर नहीं देखा जाता है । तुलनात्मक दृष्टि से निष्कर्ष रूप में केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इस समस्त विधि-विधान को जैन आचार्यों ने हिन्दू तांत्रिक परम्परा से गृहीत करके और उसको जैन-परम्परा के अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया है। पूजा विधान के अन्त में स्तुति और क्षमायाचना के विधि-विधान भी दोनों परम्पराओं में समान ही देखे जाते हैं। क्षमायाचना का निम्न मंत्र हिन्दू और जैन परम्पराओं में समान ही है। ॐ आज्ञाहीनं क्रियाहीनं मन्त्रहीनं च यत् कृतम् । तत् सर्वं कृपया देव! क्षमस्व परमेश्वर! || दीक्षा विधान दीक्षा और अभिषेक तंत्र साधना का प्रवेश द्वार है। दीक्षा का तात्पर्य गुरु के द्वारा शिष्य की योग्यता के आधार पर उसे पूर्वापर करणीय कृत्यों का उपदेश देकर साधना हेतु विशिष्ट मंत्र प्रदान करना है। सामान्यतया यह माना जाता है कि जिससे ज्ञान की प्राप्ति हो, पापों का संचय क्षीण हो तथा ज्ञान एवं पुण्य लोकों की प्राप्ति हो, उसे दीक्षा कहते हैं। जैन साधना में भी दीक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है लेकिन जैन परम्परा में साधक की योग्यता के आधार पर अनेक प्रकार के दीक्षा विधान प्रचलित हैं। सर्वप्रथम व्यक्ति को जैनधर्म में प्रवेश संबंधी दीक्षा दी जाती है। इसे पारम्परिक शब्दावली में सम्यक्त्वग्रहण कहते हैं। इसमें साधक देव, गुरु और धर्म के प्रति अपनी आस्था को प्रकट करता है। वह यह निष्ठा व्यक्त करता है कि आज से अरिहंत (वीतराग परमात्मा) ही मेरे देव अर्थात आदर्श हैं। निर्ग्रन्थ मुनि ही मेरे गुरु हैं और जिन द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का परिपालन ही मेरा साधना धर्म या मार्ग है। वह गुरु के समक्ष इस प्रतिज्ञा को ग्रहण करते समय उसे मद्य, मांस, द्यूतक्रीड़ा, शिकार, चोरी, वेश्यागमन, परस्त्री सेवन, ऐसे सप्त दुर्व्यसनों का आजीवन त्याग करना होता है। इसमें गुरु की भूमिका यह है कि वे उसे इस प्रकार की प्रतिज्ञा दिलवाते हैं। दूसरी दीक्षा तब होती है जब साधक गृहस्थजीवन के व्रतों को ग्रहण करता है। इस अवसर पर वह पाँच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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