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________________ ३४४ तान्त्रिक साधना के विधि-विधान या मारण करने हेतु माना गया है। ज्ञानार्णव (२८/१०) में ध्यान साधना की दृष्टि से पर्यंकासन, अर्द्धपर्यंकासन, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन (पद्मासन), और कायोत्सर्ग आसन (खड्गासन) के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। अनगारधर्मामृत (८/८३) तथा बोधपाहुण (५१) की श्रुतसागर की टीका में इन आसनों के उल्लेख एवं लक्षण भी उपलब्ध होते हैं। __ आचार्य महाप्रज्ञ ने भी प्रेक्षाध्यानं साधना के लिए सुखासन, वज्रासन, अर्द्धपद्मासन और पद्मासन इन दो आसनों का उल्लेख किया है। (प्रेक्षाध्यानः प्रयोग पद्धति) भगवान महावीर की साधना के सन्दर्भ में यह उल्लेख भी मिलता है कि उन्हें गोदुहिकासन में कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ था। फिर भी यह ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में मुख्य रूप से पद्मासन और खड्गासन ये दो आसन ही विशेष रूप से मान्य रहे है, क्योंकि अभी तक उपलब्ध जितनी भी जिन प्रतिमायें हैं वे इन दो आसनों में ही मिलती हैं। पञ्चोपचार तांत्रिक साधना में इष्ट देवता के पूजन में निम्न पञ्चोपचार माने गये हैं-१. आह्वान, २. स्थापन, ३. सन्निधिकरण, ४. सन्निरोध अथवा पूजन और ५. विसर्जन । जैन परम्परा के पूजा विधानों में भी इन्ही पञ्चोपचारों की चर्चा उपलब्ध होती है। यद्यपि ये पञ्च उपचार जैन दार्शनिक मान्यताओं के साथ कोई संगति नहीं रखी हैं, क्योंकि इष्ट देवता के रूप में तीर्थंकर आदि का आह्मन, स्थापन, और विसर्जन सम्भव नहीं, इसलिए कि मुक्ति को प्राप्त तीर्थंकर न तो आह्वान करने पर आते है और न विसर्जन करने पर जाते हैं। वस्तुतः पञ्चोपचार की यह अवधारणा हिन्दू तांत्रिक परम्परा से यथावत ग्रहण कर ली गई है। जैन धर्म से इसकी संगति बिठाने के लिए यह माना जाता है कि ये पञ्चोपचार तीर्थंकर के पञ्च कल्याणक के प्रतीक हैं। आहान, चयवन कल्याणक का स्थापन, जन्म कल्याणक का सन्निधिकग्ण, दीक्षा कल्याणक का पूजन, कैवल्यज्ञान के कल्याणक का तथा विसर्जन निर्वाण कल्याणक का प्रतीक है। इस प्रकार इन पञ्च-उपचारों को हिन्दू तांत्रिक परम्परा से गृहीत करके ही जैन आचार्यों ने इन्हें अपनी परम्परा के अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया है। जहाँ तक अन्य देवी-देवताओं के संदर्भ में इन पञ्चोपचारों का प्रश्न है जैन परम्परा को सैद्धान्तिक रूप से कोई विरोध नहीं, क्योंकि उनके अनुसार भी देवता स्मरण किये जाने पर उपस्थित होते हैं। इन पञ्चोपचारों की विस्तृत चर्चा हमने इसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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