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जैनधर्म और तांत्रिक साधना से बनाई गयी विशिष्ट शारीरिक आकृतियाँ होती हैं वहीं मण्डल ध्यान हेतु चेतना में कल्पित विभिन्न आकृतियां होते हैं। वैसे यंत्र और मण्डल में बहुत अधिक अंतर नहीं है । किन्तु जहां यंत्र पूजा अथवा धारण के काम में आते हैं वहां मण्डल ध्यान के विषय होते हैं । मण्डलों की बाह्य आकृतियां बनाकर फिर उन पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है। योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने प्राणायाम की चर्चा के अंतर्गत वायु की गतियों, मण्डल एवं उनके प्रकारों का निम्न निर्देश किया है।
नाभि में से पवन का निकलना 'चार' कहलाता है, हृदय के मध्य में से जाना 'गति' है और ब्रह्मरन्ध्र में रहना वायु का 'स्थान' समझना चाहिए ।
वायु के चार, गमन और स्थान को अभ्यास करके जान लेने से काल-मरण, आयु-जीवन और शुभाशुभ फल के उदय को जाना जा सकता है ।
तत्पश्चात् योगी पवन के साथ मन को धीरे-धीरे खींच कर उसे हृदय - कमल के अंदर प्रविष्ट करके उसका निरोध करते हैं।
हृदय-कमल में मन को रोकने से अविद्या - कुवासना या मिथ्यात्व विलीन हो जाता है, इन्द्रिय-विषयों की अभिलाषा नष्ट हो जाती है, विकल्पों का विनाश हो जाता है और अंतर में ज्ञान प्रकट हो जाता है।
हृदय - कमल में मन को स्थिर करने से यह जाना जा सकता है कि ● किस मंडल में वायु की गति है, उसका किस तत्व में प्रवेश होता है, वह कहां जाकर विश्राम पाती है और इस समय कौन-सी नाड़ी चल रही है । आगे मण्डलों का निर्देश करते हुए वे लिखते हैं
मण्डलानि च चत्वारि नासिका - विवरे विदुः ।
भौम-वारुण-वायव्याग्नेयाख्यानि यथोत्तरम् । । ४२ ।।
नासिका के विवर में चार मंडल होते हैं - १. भौम- पार्थिव मंडल, २. वारुण मंडल, ३. वायव्य मंडल और ४ आग्नेय मंडल ।
१. भौम-मंडल
पृथिवी - बीज - सम्पूर्ण, वज्र - लाञ्छन - संयुतम् । चतुरस्रं द्रुतस्वर्णप्रभं स्याद् भौम- मण्डलम् ||४३ । ।
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