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________________ ३१० कुण्डलिनी जागरण एवं षट्चक्रभेदन , , अँ, टैं, उँ अक्षर स्थित हैं। इस चक्र का यन्त्र धूमवर्ण षट्कोण तथा वायुतत्त्व का सूचक है। यन्त्र का बीज 'यँ' और वाहन मृग है। यन्त्र के देवता ईशान रुद्र और काकिनी हैं। इस चक्र के मध्य में शक्ति त्रिकोण है जिसमें विद्युत सा प्रकाश व्याप्त है। इस चक्र के जाग्रत होने पर साधक में अद्भुत कवित्व शक्ति और वासिद्धि प्राप्त होती है। वह जितेन्द्रिय बन जाता है। उसका मोह नष्ट हो जाता है, अतः चिन्ता, अहंकार, कपट और दुराग्रह जैसे दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं। सहानुभूति, सेवा, सहकारिता और उदारता के सद्गुण आर्विभूत होते हैं। अनाहत ध्वनि और प्रणव (ओंकार) की अभिव्यक्ति भी इसी स्थान पर होती है इसीलिए इसे अनाहतचक्र कहा जाता है। विशुद्धिचक्र इसकी स्थिति कण्ठ-प्रदेश में है। इसका कमल धूम्रवर्णवाले सोलह दलों का है और इन दलों पर अँ से लेकर अः तक सोलह स्वरों की स्थिति मानी गयी है। इस चक्र का यन्त्र पूर्ण चन्द्राकार है और पूर्णचन्द्र की प्रभा से देदीप्यमान है यह यन्त्र शून्य अथवा आकाशतत्त्व का द्योतक है। यन्त्र का बीज 'हँ' है और बीज का वाहन हस्ती है यन्त्र के देवता पंचवक्त्र सदाशिव तथा शकिनी हैं। इसका जागरण होने पर साधक में महाकवि, महाज्ञानी, शांतचित्त, नीरोग, शोकविहीन और दीर्घजीवी होने की सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है। इसकी स्थान पर मन की स्थिति रहती है, अतः जब यह चक्र जाग्रत, हो जाता है तब मन भी निरभ्र आकाश के समान विशुद्ध हो जाता है; इसीलिए इसको 'विशुद्धि चक्र' कहा जाता है। बहिरंग और अन्तरंग पवित्रता की उपलब्धि ही इस चक्र के जाग्रत होने का प्रमाण है। आज्ञाचक्र यह चक्र भ्रूमध्य के सामने मेरुदण्ड के भीतर ब्रह्मनाड़ी में स्थित है। इसका कमल श्वेतवर्ण का और दो दलोंवाला है। इन दलों पर हँ एवं क्षं अक्षरों की स्थिति मानी गयी है। चक्र का यन्त्र विद्युतप्रभायुक्त 'इतर' नामक अर्धनारीश्वर का लिंग है, जो महत तत्त्व का स्थान माना गया है। यन्त्र का बीज 'प्रणव' है। बीज का वाहन नाद है और इसके ऊपर बिन्दु भी स्थित है। यन्त्र के देव उपर्युक्त इतर लिंग हैं और शक्ति हाकिनी हैं। इस चक्र में मन और प्राण कुछ समय के लिए स्थिर हो जाते हैं। कुण्डलिनी शक्ति जब ऊर्ध्वगामी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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