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जैनधर्म और तांत्रिक साधना होकर इस चक्र को वेधती हुई आगे प्रस्थान करती है तब वह सहस्रारचक्र में जाकर अपने स्वामी सदाशिव का आलिंगन कर अमृत पान करती हुई शांत हो जाती है। साधक की यात्रा का यह अंतिम पड़ाव है। यहाँ समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाने पर असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति होती है। यही जीवात्मा का परमात्मा से मिलन या साक्षात्कार है। इसके जाग्रत होने पर चेतना के सभी स्तरों पर नियन्त्रण की सामर्थ्य विकसित हो जाती है, इसीलिये इसे आज्ञाचक्र के नाम से अभिहित किया जाता है।
सहस्रारचक्र
मेरुदण्ड के ऊपरी सिरे पर हजार दल वाला सहस्रार चक्र है जहाँ परमशिव विराजमान रहते हैं। इसके हजार दलों पर बीस-बीस बार प्रत्येक स्वर तथा व्यञ्जन स्थित माने गये हैं। परमशिव से कुण्डलिनी शक्ति का समागम ही लययोग का ध्येय है। सहस्रारचक्र में आत्मा का निवास है। यही चित्त का भी स्थान है। यहाँ चित्त में आत्मा के ज्ञान का प्रकाश प्रतिबिम्बित होता है और प्राण और मन सर्वदा के लिए स्थिर हो जाते हैं। दूसरे शब्दों में आत्मा साक्षीभाव या ज्ञाताद्रष्टाभाव में स्थित हो जाता है फलतः असम्प्रज्ञात निर्बीज समाधि की सिद्धि हो जाती है। यहीं पर चित्तवृत्तिनिरोध सम्पन्न होता है और व्यक्ति सम्पूर्ण तनावों से मुक्त होकर आत्मपूर्णता को प्राप्त कर लेता है।
हिन्दू परम्परा के प्राणतोषिणीतंत्र आदि कुछ तान्त्रिक ग्रन्थों में तालु में स्थित चौसठ दलों से युक्त ललनाचक्र और ब्रह्मरंध्र में स्थित शत दल वाले गुरुचक्र की भी कल्पना की गयी है।
जैन आचार्य सिंहतिलकसूरि ने भी परमेष्ठि- विद्यातन्त्रकल्प में भी इन्हीं नव चक्रों का उल्लेख किया है, वे अपने इस विवरण में हिन्दू तन्त्र से कितने प्रभावित हैं, यह समझने के लिए जैन दृष्टि से चक्र साधना की चर्चा करना आवश्यक है। जैनधर्म में षट् चक्र साधना
चक्र साधना को जैन परम्परा में कब स्थान मिला यह प्रश्न विचारणीय है। आगमों और आगमिकव्याख्याओं से लेकर जिनभद्रगणि (७वीं शती) के ध्यानशतक तक में हमें इन चक्रों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। मात्र
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