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३०८ कुण्डलिनी जागरण एवं षट्चक्रभेदन साधना को प्रधानता दी जाती है। सामान्यतया हिन्दू तांत्रिक साधना पद्धति में षट्चक्र की अवधारणा ही प्रमुख रही है किन्तु कुछ आचार्यों ने सप्तचक्रों और नवचक्रों की भी चर्चा की है। ये षटचक्र हैं- १. मूलाधार २. स्वाधिष्ठान ३. मणिपूर ४. अनाहत ५. विशुद्धि और ६. आज्ञाचक्र। जिन आचार्यों ने सात चक्र माने हैं वे सहस्रार को सातवाँ चक्र और जिन्होंने नौ चक्र माने हैं उन्होंने उपर्युक्त सात चक्रों के साथ-साथ आज्ञाचक्र और सहस्रार के मध्य तालु में स्थित ललनाचक्र और ब्रह्मरन्ध्र में स्थित गुरुचक्र की भी कल्पना की है। जैन तन्त्रसाधना में लगभग तेरहवीं शती से चक्र साधना के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु वे हिन्दू तान्त्रिक साधना और हठयोग की परम्परा से ही गृहीत हैं अतः सर्वप्रथम हम हिन्दूतन्त्र एवं हठयोग परम्परा के अनुसार इन चक्रों का विवरण प्रस्तुत करेंगे। हिन्दूतांत्रिक परम्परा में चक्र साधना
मूलाधारचक्र- मूलाधार चक्र रीढ़ की हड्डी के नीचे लिंग और गुदा के मध्यभाग में स्थित है। इस चक्र का कमल चार पंखुड़ियों वाला और रक्तवर्ण का है। इसका यन्त्र चतुष्कोण और पृथ्वीतत्त्व का द्योतक है। चार दलों के बीजाक्षर वँ, गु, ष, सँ, और यन्त्र का बीजाक्षर 'लँ' है। इस चक्र के नीचे त्रिकोण में स्थित एक सूक्ष्म योनिमण्डल रहता है। इसके मध्यकोण के अन्दर से सुषम्ना (सरस्वती) नाड़ी, दक्षिणकोण से पिंगला नाड़ी, तथा वामकोण से इड़ा नाड़ी निकलती है इसलिए इसे मुक्तत्रिवेणी के नाम से भी अभिहित किया जाता है। विभिन्न तांत्रिक ग्रन्थों की ऐसी मान्यता रही है कि इस योनिमण्डल के मध्य में तेजोमय रक्तवर्ण 'क्लीं बीजरूप कन्दर्प नामक स्थिर वायु विद्यमान है। इसके मध्य में ब्रह्मनाड़ी है। ब्रह्मनाड़ी के मुख में स्वम्भू लिंग है। इसी लिंग को साढ़े तीन कुण्डल में लिपेटे हुए शंख के आवर्त के समान कुण्डलिनी नामक शक्ति या सर्पिणी विद्यमान हैं। कुण्डलिनी शक्ति का आधार केन्द्र यानी मूलशक्तिकेन्द्र होने से इस चक्र को 'मूलाधारचक्र' का नाम दिया गया है। इसका वाहन हस्ति, देवता ब्रह्मा और डाकिनी हैं। इस चक्र पर ध्यान लगाने से यह चक्र जाग्रत हो जाता है। इसके जाग्रत होने पर वीरता का भाव उत्पन्न होता है, आनन्द की अनुभूति होती है, शारीरिक विकृतियाँ समाप्त हो आरोग्य की प्राप्ति है।
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