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________________ ३०७ जैनधर्म और तांत्रिक साधना आनन्दघन जी। अपने एक पद में इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए वे लिखते हैं कि म्हारो बालूडो संन्यासी, देह देवल मठवासी । । इडा पिंगला मारग तजि जोगी, सुखमना धरि आसी । ब्रह्मरंध्र मधि आसणपूरी बाबू, अनहद नाद बजासी || म्हारो ।।१।। जम नियम आसण जयकारी, प्राणयाम अभ्यासी । प्रत्याहार धारणा धारी, ध्यान समाधि समासी । | म्हारो ।।२।। मूल उत्तर गुण मुद्राधारी परयंकासनचारी । रेचक पूरक कुंभककारी, मन इन्द्री जयकारी । | म्हारे । । ३ । । थिरता जोग जुगति अनुकारी, आपो आपविचारी । आतम परमातम अनुसारी, सीझे काज सवारी । | म्हारो । । ४ । । मेरा बाल - अल्पवयस्क (अल्पअभ्यासी) संन्यासी जो देह - शरीर रूपी मठ में निवास करता है, वह ईड़ा, पिंगला नाड़ियों का मार्ग छोड़कर सुषम्ना नाड़ी के घर आता है। आसन जमाकर सुषम्ना नाड़ी द्वारा प्राणवायु को ब्रह्मरंध्र में ले जाकर अनहदनाद बजाता हुआ चित्तवृत्ति को उसमें लीन कर देता है। यम-नियमों को पालन करने वाला, एक आसन से दीर्घकाल तक बैठने में समर्थ, प्रणायाम का अभ्यासी, प्रत्याहार, धारणा एवं ध्यान करने वाला साधक शीघ्र ही समाधि प्राप्त कर लेता है । वह बाल संन्यासी संयम के मूल और उत्तर गुणोंरूपी मुद्रा को धारण कर तथा पर्यंकासन का अभ्यासी रेचक, पूरक और कुंभक प्राणायाम क्रियाओं को करने वाला है । वह मन तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर योग साधना का अनुगमन करता हुआ जब परमात्म पद का अनुसरण करता है तो उसके सभी कार्य शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं । वस्तुतः कुण्डलिनी शक्ति के जागरण का आधार षट्चक्र भेदन है अतः अग्रिम पृष्ठों में हम षट्चक्रों की साधना की चर्चा करेंगे। षट्चक्र साधना तांत्रिक साधना में कुण्डलिनी शक्ति के जागरण हेतु षट्चक्रों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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