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________________ ३०६ कुण्डलिनी जागरण एवं षट्चक्रभेदन की साधना विधि का विशिष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। यहाँ तक कि शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव एवं हेमचन्द्र के योगशास्त्र में भी इस सम्बन्ध में कोई निर्देश नहीं है। सर्वप्रथम सिंहतिलकसूरि (१३वीं शती) ने परमेष्ठिविद्यामन्त्रकल्प में इसका निर्देश किया है। वे लिखते हैं कि - कुण्डलिनीतन्तुद्युतिसंभृतमूर्तीनि सर्वबीजानि । शान्त्यादि-संपदे स्युरित्येषो गुरुक्रमोऽस्माकम् ।। किं बीजैरिह शक्तिः कुण्डलिनी सर्वदेववर्णजनुः । रवि-चन्द्रान्तर्ध्याता भुक्त्यै च गुरुसारम् ।। भ्रूमध्य-कण्ड-हृदये नाभौ कोणे त्रयान्तरा ध्यातम् । परमेष्टिपञ्चकमयं मायाबीजं महासिद्ध्यै श्रीविबुधचन्द्रगणभृच्छिष्यः श्रीसिंहतिलकसूरिरिमम् । परमेष्ठियन्त्रकल्पं लिलेख सालाददेवताक्त्या।। परमेष्ठिविद्यायन्त्रकल्पः। यह कुण्डलिनी नाड़ी सभी बीजाक्षरों (मन्त्र–बीजाक्षरों) की प्रकाशवान मूर्ति ही है। वही शांति आदि सम्पदाओं का आधार है, ऐसी हमारी गुरुपरम्परा या मान्यता (आम्नाय हैं। वस्तुतः इन मन्त्र-बीजाक्षरों से भी क्या? जब कुण्डलिनी) शक्ति सभी देव (देव-पदों) एवं वर्णाक्षरों (बीजाक्षरों) की जनक है तो फिर इसी की साधना करनीचाहिए। सूर्य नाड़ी एवं चन्द्र नाड़ी ईडा (पिंगला) में इन बीजाक्षरों का ध्यान करने से भोग और सुषुम्ना में ध्यान करने से मुक्ति की प्राप्ति होती है, ऐसा गुरु के द्वारा बताया गया रहस्य है। भ्रूमध्य अर्थात् आज्ञाचक्र, कण्ठ अर्थात् विशुद्धिचक्र, हृदय अर्थात् अनाहतचक्र, नाभि अर्थात् मणिपूरचक्र और कोणद्वय अर्थात् स्वाधिष्ठान और मूलाधारचक्र में पंचपरमेष्ठि मायाबीज हीं का ध्यान करने पर महासिद्धि की प्राप्ति होती है। सिंहतिलकसूरि के अतिरिक्त श्वेताम्बर परम्परा में कुण्डलिनी शक्ति एवं ईडा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों की चर्चा करने वाले दूसरे आचार्य हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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