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३) अज्ञानदोष
२८२ ध्यान साधना और जैनधर्म कुसंस्कारों के कारण हिंसादि अधार्मिक कार्यों को धर्म मानना।
४) आमरणान्त दोष - मरणकाल तक भी हिंसादि क्रूर कमों को करने
का अनुताप न होना। (३) धर्म ध्यान- जैन आचार्यों ने साधना की दृष्टि से केवल धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को ही ध्यान की कोटि में रखा है। यही कारण है कि आगमों में इनके भेद और लक्षणों की चर्चा के साथ-साथ इनके आलम्बनों और अनुप्रेक्षाओं का भी उल्लेख मिलता है। स्थानांगसूत्र आदि में धर्म ध्यान के निम्न चार भेद बताये गये हैं।७६
१) आज्ञाविचय- वीतराग सर्वज्ञ- प्रभु के आदेश और उपदेश के सम्बन्ध में आगमों के अनुसार चिन्तन करना।
२) अपायविचय- दोषों और उनके कारणों का चिन्तन कर उनसे छुटकारा कैसे हो, इस सम्बन्ध में विचार करना। दूसरे शब्दों में हेय क्या है? इसका चिन्तन करना।
३) विपाक विचय- पूर्वकर्मों के विपाक के परिणामस्वरूप उदय में आनेवाली सुखदुःखात्मक विभिन्न अनुभूतियों का समभावपूर्वक वेदन करते हुए उनके कारणों का विश्लेषण करना दूसरे कुछ आचार्यों के अनुसार हेय के परिणामों का चिन्तन करना ही विपाकविचय धर्म ध्यान है।
विपाकविचय धर्म ध्यान को निम्न उदाहरण से भी समझा जा सकता
मान लीजिए कोई व्यक्ति हमें अपशब्द कहता है और उन अपशब्दों को सुनने से पूर्वसंस्कारों के निमित्त से क्रोध का भाव उदित होता है। उस समय उत्पन्न होते हुए क्रोध को साक्षी भाव से देखना और क्रोध की प्रतिक्रिया व्यक्त न करना तथा यह विचार करना कि क्रोध का परिणाम दुःखद होता है अथवा यह सोचना कि मेरे निमित्त से इसको कोई पीड़ा हुई होगी, अतः यह मुझे अपशब्द कह रहा है, यह विपाकविचय धर्म ध्यान है। संक्षेप में कर्मविपाकों के उदय होने पर उनके प्रति साक्षी भाव रखना, प्रतिक्रिया के दुःखद परिणाम का चिन्तन करना एवं प्रतिक्रिया न करना ही विपाकविचय धर्म ध्यान है।
४) संस्थान विचय- लोक के स्वरूप के चिन्तन को सामान्यरूप से संस्थान विचय धर्म ध्यान कहा जाता है। किन्तु लोक एवं संस्थान का अर्थ आगमों
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