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________________ २८३ जैनधर्म और तांत्रिक साधना में शरीर भी है। अतः शारीरिक गतिविधियों पर अपनी चित्तवृत्तियों को केन्द्रित करने को भी संस्थानविचय धर्म ध्यान कहा जा सकता है। अपने इस अर्थ में संस्थान विचय धर्म ध्यान शरीर-विपश्यना या शरीर-प्रेक्षा के निकट है। आगमों में धर्म ध्यान के निम्न चार लक्षण कहे गये हैं। १) आज्ञारुचि- जिन आज्ञा के सम्बन्ध में विचार-विमर्श करना तथा उसके प्रति निष्ठावान रहना। २) निसर्गरुचि- धर्मकार्यों में स्वाभाविक रूप से रुचि होना। ३) सूत्ररुचि- आगम शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन में रुचि होना। ४) अवगाढ़रुचि- आगमिक विषयों के गहन चिन्तन और मनन में रुचि होना। दूसरे शब्दों में आगमिक विषयों का रुचि गम्भीरता से अवगाहन करना। स्थानांग में धर्म ध्यान के आलम्बनों की चर्चा करते हुए, उसमें चार आलम्बन बताये गये हैं.६– १. वाचना-अर्थात् आगमसाहित्य का अध्ययन करना, २. प्रतिपृच्छना-अध्ययन करते समय उत्पन्न शंका के निवारणार्थ जिज्ञासावृत्ति से उस सम्बन्ध में गुरुजनों से पूछना। ३. परिवर्तना-अधीत सूत्रों का पुनरावर्तन करना ४. अनुप्रेक्षा- आगमों के अर्थ का चिन्तन करना। कुछ आचार्यों की दृष्टि में अनुप्रेक्षा का अर्थ संसार की अनित्यता आदि का चिन्तन करना भी है। स्थानांगसूत्र के अनुसार धर्म ध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं कहीं गई हैं१. एकत्वानुप्रेक्षा, २. अनित्यानुप्रेक्षा, ३. अशरणानुप्रेक्षा और ४. संसारानुप्रेक्षा। ये अनुप्रेक्षाएँ जैन परम्परा में प्रचलित १२ अनुप्रेक्षाओं के ही अन्तर्गत हैं। जिनभद्र के ध्यानशतक तथा उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में धर्मध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है। जिनभद्र के अनुसार जिस व्यक्ति में निम्न चार बातें होती हैं वहीं धर्म ध्यान का अधिकारी होता है। १. सम्यकज्ञान (ज्ञान), २. दृष्टिकोण की विशुद्धि (दर्शन), ३. सम्यक् आचरण (चारित्र) और ४. वैराग्यभाव। हेमचन्द्र-२ ने योगशास्त्र में इन्हें ही कुछ शब्दान्तर के साथ प्रस्तुत किया है। वे धर्म ध्यान के लिए १. आगमज्ञान, २. अनासक्ति, ३. आत्मसंयम और ४. मुमुक्षुभाव को आवश्यक मानते हैं। धर्म ध्यान के अधिकारी के सम्बन्ध में तत्त्वार्थ का दृष्टिकोण थोड़ा भिन्न है। तत्त्वार्थ के श्वेताम्बर मान्य पाठ के अनुसार धर्म ध्यान अप्रमत्तसंयत, उपशांतकषाय और क्षीणकषाय में ही सम्भव है। गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यदि हम कहें तो सातवें, ग्यारहवें और बारहवें में ही धर्म ध्यान संभव है। यदि इसे निरंतरता में ग्रहण करें तो अप्रमत्त संयत से लेकर क्षीणकषाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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