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जैनधर्म आ
२८१ जैनधर्म और तांत्रिक साधना अविरत सम्यकदृष्टि तथा देशविरत सम्यकदृष्टि में आर्त ध्यान के उपरोक्त चारों ही प्रकार पाये जाते हैं; किन्तु प्रमत्त संयत में निदान को छोड़कर अर्थात् अप्राप्त की प्राप्ति की आकांक्षा को छोड़कर अन्य तीन ही विकल्प होते हैं। स्थानांगसूत्र में इसके निम्न चार लक्षणों का उल्लेख हुआ है-७४ १) क्रन्दनता - उच्च स्वर से रोना। २) शोचनता
दीनता प्रकट करते हुए शोक करना। ३) तेपनता
आंसू बहाना। ४) परिदेवनता - करुणा-जनक विलाप करना।
(२) रौद्र ध्यान- रौद्र ध्यान आवेगात्मक अवस्था है। रौद्र ध्यान के भी चार भेद किये गये हैं ७५ १) हिंसानुबंधी - निरन्तर सिंह प्रवृत्ति में तन्मयता करानेवाली
चित्त की एकाग्रता। २) मृषानुबंधी - असत्य भाषण करने सम्बन्धी चित्त की एकाग्रता। ३) स्तेनानुबन्धी निरन्तर चोरी करने कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी
चित्त की एकाग्रता। ४) संरक्षणाबन्धी - परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी
तन्मयता। कुछ आचार्यों ने विषयसंरक्षण का अर्थ बलात् ऐन्द्रिक भोगों का संकल्प किया है, जब कि कुछ आचार्यों ने ऐन्द्रिक विषयों के संरक्षण में उपस्थित क्रूरता के भाव को ही विषयसंरक्षण कहा है। स्थानांग में इसके भी ।
निम्न चार लक्षणों का निर्देश है।७६ १) उत्सन्नदोष हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति
करना।
२) बहुदोष
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हिंसादि सभी पापों के करने में संलग्न रहना।
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