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यन्त्रोपासना और जैनधर्म चतुर्विंशति तीर्थंकर अनाहतयन्त्र चौबीस तीर्थंकरों की अवधारणा जैन परम्परा की अपनी विशिष्ट अवधारणा है। चौबीस तीर्थंकरों और उनके यक्ष-यक्षिणियों के आधार पर चतुर्विंशति तीर्थंकर अनाहत यन्त्रों की रचना हुई है। ये यन्त्र मन्त्रगर्भित हैं। इन यन्त्रों में तीर्थंकर के अतिरिक्त उनके यक्ष और यक्षी का भी उल्लेख हुआ है। यद्यपि यन्त्रों से सम्बन्धित जो मन्त्र हैं, उनमें मात्र तीर्थंकरों के ही नामों का उल्लेख है, उनके यक्ष-यक्षियों का नहीं। इन मन्त्रों में प्रत्येक तीर्थंकर के नाम के पूर्व 'ऊँ णमो भगवदो अरहदो' तथा तीर्थंकर नाम के पश्चात् 'सिज्झधम्मे भगवदो विज्झर महाविज्झर' का उल्लेख है। सभी मन्त्रों के अन्त में 'स्वाहा' शब्द का उल्लेख भी मिलता है। चूंकि इनमें 'स्वाहा' शब्द का प्रयोग है एवं 'नमः' शब्द का प्रयोग नहीं है, अतः इन्हें मन्त्र ही कहना होगा। योजना की दृष्टि से इन यन्त्रों में अन्तर्गर्भित चार चतुष्कोण बनाये गये हैं। प्रथम बाहरी चतुष्कोण में बीजाक्षर; दूसरे चतुष्कोण में तीर्थंकर से सम्बन्धित प्राकृत मन्त्र, तीसरे चतुष्कोण में बीजाक्षरयुक्त तीर्थंकर एवं उनके यक्ष-यक्षिणियों के नामोल्लेख सहित अपनी अभीष्ट कामना का स्वाहापूर्वक उल्लेख एवं चतुष्कोण में विशिष्ट प्रकार की आकृतियां बनाई गयी हैं। ये चतुर्विंशति तीर्थंकर अनाहत यन्त्र हमने डा० दिव्यप्रभाजी एवं डा० अनुपमाजी द्वारा संपादित ‘मंगलम्' नामक पुस्तिका से उद्धृत किये हैं, एतदर्थ हम सम्पादिकाद्वय के आभारी हैं। उनसे इन यन्त्रों के मूलस्रोत के सन्दर्भ में जानकारी चाहे जाने पर उन्होंने बताया कि ये यन्त्र उन्हें स्थानकवासी परम्परा के ऋषि सम्प्रदाय के पूज्य श्री त्रिलोकऋषि जी म०सा० के हस्तलिखित संग्रह से उपलब्ध हुए थे। इन मन्त्रों के भाषायी स्वरूप का अध्ययन करने पर हमें यह भी ज्ञात होता है कि भाषा की अपेक्षा प्रायः सभी मन्त्र अशुद्ध छपे हैं। पुनः इनमें शौरसेनी प्राकृत एवं अपभ्रंश दोनों के ही शब्द रूपों का प्रयोग है, कहीं-कहीं संस्कृत शब्दरूप भी हैं। णमोभगवदो अरहदो' शब्द निश्चित रूप से शौरसेनी प्राकृत का है तो 'सिज्झधम्मे' अपभ्रंश रूप है। शौरसेनी प्राकृत मुख्य रूप से दिगम्बर परम्परा के आगम ग्रन्थों की भाषा रही है। अतः यह निश्चित है कि पूज्य त्रिलोकऋषि जी म०सा० को ये यन्त्र दक्षिण में विचरण करते समय दिगम्बर परम्परा के किसी भट्टारक के संग्रह से प्राप्त हुए होंगे। जैन परम्परा के यन्त्र-मन्त्रों के सन्दर्भ में जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, उनमें मात्र आचार्य राजेश दीक्षित द्वारालिखित 'जैनतन्त्रशास्त्र' नामक पुस्तक में ये यन्त्र हमें देखने को मिले, किन्तु उनमें भी भाषागत अशुद्धियाँ हैं। दुर्लभता की दृष्टि से इन यन्त्रों का एक विशेष महत्त्व है। यह सत्य है कि ये यन्त्र जैन परम्परा में ही निर्मित हैं, क्योंकि इनमें तीर्थंकरों और उनके
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