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________________ १९३ जैनधर्म और तांत्रिक साधना को विस्मयोऽत्र यदि नामगुणै-रशेषै-- स्त्वं संश्रितो निरवकाश-तया मुनीश! दोषै-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचि-दपीक्षितोऽसि ।।२७।। मन्त्र । F कोविस्मयादिनामगुगरशेष हीहएमालततयाएननमो जे जज जन ऋद्धि -ॐ ह्रीं अर्ह णमो दित्ततवाणं। | मंत्र -ॐ नमो चक्रेश्वरी देवी चक्रधारिणी चक्रेणानुकूलं साधय साधय शत्रू नुन्मूलयोन्मूलय स्वाहा। प्रभाव-शत्रु का उन्मुलन होता है, वह Fe आराधक को कोई क्षति नहीं पहुँचा SanmarARE पाता। iterative स्वप्नान्तरेऽपिनकदाचिदपीक्षितीप्रस २७ उन्मूलय स्वाहा। जंज रकेश्वरीदेवीकधारिएगीचाएग स्यसश्रितानिरवकाशतया मुनाश! उच्च-रशोक-तरु-संश्रित-मुन्मयूखमाभाति रूप-ममलं भवतो नितान्तम् । स्पष्टोल्लसत-किरण-मस्त-तमो-वितानम्, बिम्बं रवे-रिव पयोधर-पार्श्ववर्ति।।२८ ।। यन्त्र उभेरशोकतरुसभितमुन्मयूरव_ | उही अपमामहातबारा निमा मन्त्र सौ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अर्ह णमो महातवाणं । मंत्र -ॐ नमो भगवते जयविजय जम्भय जम्भय मोहय मोहय सर्वसिद्धि सम्पत्ति सौख्यं च कुरु कुरु स्वाहा । प्रभाव--मारे मनोरथ सिद्ध होते हैं। विम्वचारवपयोधरपार्थचनि।।८ सपानमोरन्मकुरूकुरुस्वाहा। भगवदेजयविजय अभय मामातिरुपममलयतोनिनन्नम् । IEL.... . .. ... . -..-.- -- -- - - - desiant' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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