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________________ १८९ जैनधर्म और तांत्रिक साधना किं शर्वरीषु शशिनाहि विवस्वता वा? युष्मन् मुखेन्दु-दलितेषु तमःसु नाथ! निष्पन्नं-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके. कार्य कियज्जलधरै-जलभार-ननैः ।।१६ ।। यन्त्र ४.शिर्वरीपुशशिनाहि वियस्थतापाइन्हीं अहमोजिाहराए। न इन नर्नि ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो विज्जाहराणं। ] मंत्र -ॐ ह्रां ह्रीं ह्रहः यक्ष ह्रीं वषट् ! फट् स्वाहा। प्रभाव-अन्नों द्वारा प्रयुक्त मंत्र, जादू, टोना, टोटका, मूठ, उच्चाटन आदि का भय नहीं रहता। कार्य कियजलधरैर्जलभारनत्रैः नमास्वाहा। हां-हीं | युग्मन्मुत्वेन्दुदलितेमुतमा सुनाथ : यस ही ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशम्, नैवं तथा हरि-हरीदिषु नायकेषु । तेजो महा-मणिषु याति यथा महत्त्वम्, नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि ।।२०।। यन्त्र ज्ञानयवात्ययविभातिकताकाशं ईहीनाईएमोचारणाएं भी +श्रीना . मन्त्र ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो चारणाणं । मंत्र -ॐ श्राश्रीं श्रं श्रः शत्रुभयनिवारणाय ठः ठः स्वाहा। प्रभाव-सम्पत्ति, सौभाग्य, बुद्धि, विवेक और विजय प्राप्त कराने में समर्थ हैं | नागावाकनेकिरणाकुलेऽपि धाश्रीभ्रूमः नयतयाहरहरमरखना 22 IMAL - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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