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________________ १८५ जैनधर्म और तांत्रिक साधना दृष्ट्वा भवन्त-मनिमेष-विलोकनीयम्, नान्यत्र तोष-मुपयाति जनस्य चक्षुः। पोत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धोः, | क्षारं जलं जलनिधे-रसितुं क इच्छेत् ।।११।। भवन्तगनिमेषविलोकनीयं उन 4 भगवते नान्यत्र ॐ नमः कोमो याहा 37 प्रहएमा। मारजलंजतनिधरसितुकइन ११ ल्यमा M - वसाय eritin ऋद्धि -ॐ ह्रीं अहं णमो पत्तेयबुद्धीणं। . मंत्र -ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं श्रां श्रीं कुमति निवारिण्यै महामायायै नमः स्वाहा।। प्रभाव-इच्छित. को आकर्षित करता है। वर्षा को विवश करता है। JYA विजनस्पचक्षुः। १ - - यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्वम्, निमा पित-स्त्रिभुवनै क-ललामभूत! तावन्त एवं खलु तेऽप्यणवः पृथिव्याम्, यत्ते समान-मपरं नहि रूप-मस्ति।।१२।। यात्र यैः शान्तरागरुधिभिपरमाएपभिस्त्वं मो भग 4 ते हीमोगानुदिनभमदाणमधीमा हीमहाभारोहे युद्धीणा मन्त्र ऋद्धि -ॐ ह्रीं अर्ह णमो बोहियबुद्धीणं । मंत्र -ॐ आं आं अं अः सर्वराजप्रजा मोहिनि सर्वजनवश्यं कुरु कुरु स्वाहा। प्रभाव-हाथी का मद उतर जाता है, अभीप्सित रूप मिल जाता है। यतेसमानपपरनहिरुपमस्तेि २ लाधि यहाही नम । मुनसुम्बम्मानबोधिनानपादान', EE नानांच.मराजा जामिनाजस्थापयानिधी व्यन्जवलपराक निर्मापिनलि भुवनैकलनाम भूत । purnimal InH kahas abie - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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