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स्तोत्रपाठ, नामजप एवं मंत्रजप करने से ज्ञान नष्ट हो जाता है। कंबल पर बैठकर जप करने से मानभंग हो जाता है। अतः सर्वधर्म कार्य सिद्ध करने के लिए दर्भासन (डाभ का आसन) उत्तम हैं।
मेरी दृष्टि. में यह आसन विधान तांत्रिक परम्परा से ही गृहीत हुआ है। श्वेताम्बर साधु तो सामान्यतया कम्बल के आसन पर बैठकर ही जप आदि किया करते हैं।
जप में वस्त्रों के रंग का भी महत्त्व है। सामान्यतया तांत्रिक साधना में लालरंग के वस्त्रों से जप करने का विधान है। किस रंग के वस्त्र पहनकर जप करने से क्या लाभ होता है इसके भी उल्लेख हैं। नीले रंग के वस्त्र पहन कर जप करने से मान भंग होता है। श्वेत वस्त्र पहनकर जप करने से यश की वृद्धि होती है । पीले रंग के वस्त्र पहनकर जप करने से हर्ष बढ़ता है। लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि हेतु ध्यान में लाल रंग के वस्त्र श्रेष्ठ माने गये हैं। जपस्थलविधान
जप किस स्थल पर किया जाये इस सम्बन्ध में निम्न मान्यता हैगृहे जपफलं प्रोक्तं वने शतगुणं भवेत्। पुण्यारामे तथा रण्ये सहस्रगुणितं मतम् ।। पर्वते दशहसहस्रं च नद्यां लक्षमुदाहृतम्। कोटिर्दैवालये प्राहुरनन्तं जिनसन्निधौ।।
अर्थात् घर में जप करने का जो फल होता है उससे सौगुना फल वन में जप करने से होता है। पुण्य क्षेत्र तथा अरण्य में जप करने से हजारगुना फल होता है। पर्वत पर जप करने से दसहजारगुना, नदी के किनारे जप करने से एकलाखगुना, देवालय (मन्दिर) में जप करने से करोड़ गुना फल होता है। भगवान की प्रतिमा के सान्निध्य में जप करने से अनन्तगुना फल मिलता है। मुझे प्राचीन जैन ग्रन्थों में ऐसा कोई विधान देखने को नहीं मिला। मेरी दृष्टि में यह विधान भी आचार्य श्री देशभूषणजी ने कहीं से अवतरित किया है। मुझे १२वीं शताब्दी के पश्चात् के कुछ ग्रन्थों में इस प्रकार के संदर्भ उपलब्ध हुए हैं। श्राद्धविधि प्रकरण में किसी, अन्य आचार्य के मत को अभिव्यक्त करते हुए रनशेखर सूरि ने नन्द्यावर्त, शंखावर्त आदि करजाप के प्रकारों का उल्लेख किया है। उसमें यह भी लिखा है कि जो कर आवर्त से ६ बार इस पंचनमस्कार मंत्र का पाठ करता है उससे पिशाचादि छल नहीं कर सकते। उसी ग्रन्थ में यह भी बताया गया है कि जो करजाप करने में समर्थ न हो उसे सूत, रत्न अथवा
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