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________________ १६१ स्तोत्रपाठ, नामजप एवं मन्त्रजप जप और जैन धर्म जप के दो रूप हैं- १. नामजप और २. मंत्रजप। नामजप स्तुति से इस अर्थ में भिन्न हैं, कि जहाँ स्तुति में आराध्य के गुणों का संकीर्तन किया जाता है, वहाँ नाम स्मरण में मात्र उनके नाम का या नामों का संकीर्तन होता है। भक्तिमार्गीय और तांत्रिक परम्पराओं में इस नामस्मरण का अत्यधिक महत्त्व है। जैन परम्परा में भी प्रकारान्तर से नमस्कारमंत्र को सर्वपाप प्रणाशक (सव्वपावप्पणासणो) कहकर नामस्मरण के मूल्य और महत्त्व को स्वीकार किया गया है। एक गुजराती जैन कवि कहता है "पाप पराल को पुंज बन्यो मानो मेरु आकारो। ते तुम नाम हुताशन सेती सहज प्रजलत सारो।।" हे प्रभु! पापों का मेरु पर्वत के समान कितना ही बड़ा पुञ्ज क्यों न हो, वह आपकी नामरूपी अग्नि से सहज ही जलकर भस्म हो जाता है। इस प्रकार जैनधर्म में नामस्मरण को सर्व पापों का प्रणाश करने वाला बताया तो गया है, फिर भी प्रभु के नामस्मरण से यहाँ जो पापों के प्रणाश की बात कही गयी है उसका अर्थ यह नहीं है कि प्रभु प्रसन्न होकर व्यक्ति के पापों को क्षमा कर देंगे, क्योंकि यदि ऐसा मानेंगे तो जैन दर्शन के कर्मसिद्धान्त का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। जैन धर्म दर्शन की अनन्य आस्था कर्मसिद्धान्त में है। वह किसी भी अर्थ में प्रभुकृपा (Grace of God) को स्वीकार नहीं करता है। अतः प्रभु के नामस्मरण से पापों के नाश होने का अर्थ मात्र इतना ही है कि प्रभु के नाम का संकीर्तन करने से व्यक्ति में विनय आदि सद्गुणों का विकास होता है और अहंकार आदि दुर्गुण समाप्त होते हैं। चित्तवृत्ति विषय-वासनाओं में नहीं भटकती है और अपने में निहित जिनत्व का और वीतरागता का विकास होता है, बस यही व्यक्ति के पापों के शमन का कारण बनता है। वस्तुतः जैन दर्शन में समस्त पापों या बन्धनों की जड़ है- ममत्व और कषाय । प्रभु के वीतराग स्वरूप का स्मरण करने से राग का प्रहाण होता है और चित्त को प्रभु में एकाग्र करने से कषायों की अभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिलता है। अतः उनका रस क्षीण हो जाता है। वस्तुतः जैन दर्शन में वैयक्तिक आत्मा और परमात्मा में तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। प्रभु के स्भरण से व्यक्ति वस्तुत: अपने ही आत्मस्वरूप को पहचानता है। वह निज में सोये हुए जिनत्व का दर्शन करता है। यह अपने ही परमात्मस्वरूप का साक्षात्कार है। फिर भी जैनधर्म में नाम-स्मरण की जो परम्परा विकसित हुई, वह उस पर अन्य भक्तिमार्गीय परम्पराओं के प्रभाव को रेखांकित अवश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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