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जैन धर्म और तांत्रिक साधना करती है । यहाँ यह ज्ञातव्य है किं जहाँ तांत्रिक साधना में सभी कार्य गुरुकृपा या दैवीय कृपा से सिद्ध होते हैं, वहाँ जैन परम्परा में वे व्यक्ति के प्रयत्न या पुरुषार्थ से सिद्ध होते हैं। जैन परम्परा में गुरु के महत्त्व को तो स्वीकार किया गया है फिर भी उसने किसी भी कार्य की सिद्धि के लिए व्यक्ति के प्रयत्न और पुरुषार्थ को ही प्रधानता दी है। गुरु और परमात्मा मार्ग का ज्ञान कराते हैं, किन्तु उस पर यात्रा तो व्यक्ति को स्वयं ही करनी होती है और वही यात्रा उसे सिद्धि के लक्ष्य तक पहुँचाती है। अतः उसमें व्यक्ति का साधना रूप पुरुषार्थ या प्रयत्न ही प्रधान है। महत्त्व साधना का है, कृपा का नहीं । जैन परम्परा व्यक्ति को स्वामी बनाती है, याचक या दास नहीं ।
नामजप
मेरी दृष्टि में जैन धर्म में नामस्मरण के रूप में सर्वप्रथम अरहंत / सिद्ध पद को जपने की और फिर सम्पूर्ण नमस्कार मंत्र के जपने की परम्परा प्रारम्भ हुई होगी। उसी क्रम में चौबीस तीर्थंकरों, गौतम आदि गणधरों एवं लब्धिधरों के नामस्मरण की परम्पराएँ विकसित हुई, जिनकी पूर्णता सूरिमंत्र की साधना के रूप में हुई। आगे चलकर जब विद्यादेवियों एवं यक्ष-यक्षियों को जैन देव मण्डल का सदस्य मान लिया गया तो उनके भी नामस्मरण की परम्पराएँ विकसित हुईं।
लगभग ८वीं शताब्दी के पश्चात् जब हिन्दू परम्परा में विष्णु सहस्रनाम, शिवसहस्रनाम आदि का विकास हुआ तो उसी का प्रभाव जैन परम्परा पर भी आया । परमात्मा के पर्यायवाची नामों की परम्परा तो जैनधर्म में भी प्राचीनकाल से चली आ रही है । आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध (लगभग ई०पू० प्रथम शती) में भगवान महावीर के कुछ पर्यायवाची नामों का उल्लेख हुआ है । निर्युक्ति आदि आगमिक व्याख्याओं में इन पर्यायवाची नामों के अर्थ को स्पष्ट करने का भी प्रयास किया गया । शक्रस्तव (नमोत्थुणं) में सर्वप्रथम अरहंत के विभिन्न गुणवाची नामों का उल्लेख हुआ है, फिर भी इतना निश्चित है कि जिनसहस्रनाम की परम्परा विष्णुसहस्रनाम और शिवसहस्रनाम के अनुकरण के आधार पर ही विकसित हुई है । सर्वप्रथम जिनसेन ने अपने आदिपुराण के पच्चीसवें पर्व में अन्त में जिनसहस्रनाम की चर्चा की है। जिनसेन के पश्चात् सिद्धर्षि, आशाधर, देवविजयगणि, विनयविजय, सकलकीर्ति आदि अनेक जैनाचार्यों ने जिननामशतक, जिनसहस्रनाम आदि नामों से ग्रंथों की रचना की है। इन सभी में शिव या विष्णु के विभिन्न पर्यायवाची नामों को जिन के पर्यायवाची नामों के रूप में स्वीकृत किया गया और उनकी जैन दृष्टि से व्याख्या भी की गई। फिर भी यह सब
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