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मंत्र साधना और जैनधर्म गृहस्थ दोनों ही इन षडावश्यक कर्मों की साधना करते हैं। जबकि दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा प्रतिक्रमण को विषकुम्भ कहकर उपेक्षित कर देने पर गृहस्थ के लिये निम्न नवीन षट्कर्म निरूपित किये गये हैं- १. दान, २. पूजा, ३. गुरु की उपासना, ४. स्वाध्याय, ५. संयम और ६. तप। फिर भी इतना निश्चित है कि जैनों में जो षट्कर्म की अवधारणा रही है वह मूलतः उनकी निवृत्तिमार्गी आध्यात्मिक अहिंसक दृष्टि पर आधारित है।
तांत्रिक साधना में भी षट्कर्मों की साधना महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। उनमें अनुशंसित षट्कर्म हैं- १. मारण, २. मोहन, ३. उच्चाटन, ४. आकर्षण, ५. स्तम्भन और ६. वशीकरण ।
यह स्पष्ट है कि ये षट्कर्म जैन धर्म की आध्यात्मिक निवृत्तिमार्गी अहिंसक परम्परा के विपरीत हैं। अतः जैनाचार्यों ने तो न कभी इनकी साधना का निर्देश किया और न ही इन्हें उचित माना। फिर भी तांत्रिक साधनाओं में ये प्रचलित थे और तंत्र का जो अंधानुकरण जैन धर्म में हुआ उसके परिणामस्वरूप ये षट्कर्म जैन परम्परा में भी प्रविष्ट हो गये। भैरव-पद्मावती कल्प में मल्लिषेणसूरि ने देवीपूजा के क्रम में इन षट्कर्मों का उल्लेख किया है। वे लिखते हैं कि दीपन से शांतिकर्म, पल्लव से विद्वेषण कर्म, सम्पुट से वशीकरण, रोधन से बंधकर्म ग्रन्थन से स्त्री आकर्षण कर्म और स्तम्भन कर्म करना चाहिए। आगे मन्त्रों की चर्चा के प्रसंग में वे लिखते हैं कि विद्वेषण कर्म में हूं, आकर्षण में वौषट्, उच्चाटन में फट्, वशीकरण में वषट्, मारण और स्तम्भन में धैं-धं, शांतिकर्म में स्वाहा और पुष्टि कर्म में स्वधा की योजना करनी चाहिए। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि चाहे तंत्रमान्य षट्कर्म जैन धर्म और दर्शन के विरुद्ध रहे हों और जैनाचार्यों ने उनकी स्पष्ट रूप से आलोचना भी की हो, फिर भी परवर्तीकाल में तंत्र का जो असमीक्षित अनुकरण जैन परम्परा में हुआ उसके परिणामस्वरूप कुछ चैत्यवासी श्वेताम्बर जैन यति और दिगम्बर भट्टारक इन षट्कर्मों की साधना करने लगे थे। फिर भी प्रबुद्ध जैन आचार्यों ने प्रत्येक काल में इस प्रकार की प्रवृत्तियों की न केवल निंदा की, अपितु मारण, सम्मोहन आदि षट्कर्मों की इस साधना को जैनधर्म के विरुद्ध भी घोषित किया। जिन्होंने इन्हें स्वीकार किया उन्होंने भी इन्हें निवृत्तिमूलक आध्यात्मिक दृष्टि से देखने का प्रयास किया। मानतुंगाचार्य विरचित कहे जाने वाले नमस्कारमंत्रस्तवन में कहा गया है
मुक्खं खेयर पयविं अरिहंता दिंतु पणयाण । तियलोय वसीयरण मोहं सिद्धा कुणंतु भुवनस्स।
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