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________________ १४२ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना जल जलणए सोलस पयत्थ थंभुतु आयरिया । इह लोइय लाभकरा उवज्झाया हन्तु सव्व भय हरणा। पावुच्चाडण ताडण निउणा साहू सया सरह ।। अर्थात् अर्हत् प्रणतजनों को मोक्ष या देवपद प्रदान करें। सिद्ध तीनों लोकों का वशीकरण और संसार का मोहन करें । आचार्य जल अग्नि आदि सोलहों का स्तम्भन करें और इहलौकिक कल्याण करने वाले उपाध्याय सर्वभयों का हरण करें और साधु पाप के उच्चाटन ताडन आदि कर्मों में सहायक बनें। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनाचार्यों ने तंत्र सम्मत षट्कर्मों को स्वीकार करके भी उनकी एक नवीन आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या की है- नमस्कार मंत्र स्तवन नामक ३५ गाथाओं की यह प्राकृत कृति तांत्रिक साधना के विभिन्न पक्षों को नमस्कार मंत्र की जैन साधना से समन्वित करती है और इस क्रम में उसमें तांत्रिक साधना के षट्कर्मों का आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचन भी किया गया है। फिर भी जैन धर्मानुयायी जनसाधारण के भौतिक कल्याण को लक्ष्य में रखकर जैनाचार्यों को भी आकर्षण, स्तम्भन, वशीकरण आदि के कुछ मन्त्रों का विधान करना पड़ा है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जैन आचार्यों का मूल दृष्टिकोण तो निवृत्तिपरक एवं आध्यात्मिक ही था किन्तु जब उन्होंने यह देखा कि जैन उपासक भौतिक आकांक्षाओं एवं लौकिक ऐषणाओं की पूर्ति के पीछे भाग रहा है और उस हेतु अन्य तांत्रिक परम्पराओं का सहारा ले रहा है तो उन्होंने उस सामान्य वर्ग को जैन धर्म में टिकाये रखने के लिए या तो अपनी परम्परा के अन्तर्गत ही मन्त्रों का सृजन किया या फिर अन्य परम्पराओं के मन्त्रों को लेकर उन्हें अपने ढंग से योजित किया। षट्कर्म संबंधी मंत्र यद्यपि स्तम्भन आदि षट्कर्म जैन परम्परा के अनुरूप नहीं हैं किन्तु लगभग १०वीं-११वीं शताब्दी से जैन परम्परा में तांत्रिक साधना के प्रति आकर्षण बढ़ा और जैन परम्परा में भी तत्संबंधी मंत्रों का निर्माण हुआ । इन षट्कर्म संबंधी मंत्रों में भी हमें दो प्रकार के मंत्र मिलते हैं। इनमें प्रथम प्रकार के मंत्र प्राकृत भाषा में रचित हैं और इनमें इष्टदेव के रूप में पंच परमेष्ठि या तीर्थंकरों को ही आधार माना गया है किन्तु इसके साथ ही ब्राह्मण तांत्रिक परम्परा के मंत्रों को भी थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ स्वीकार कर लिया गया है। 'अ' वर्ग में जैन परम्परा में निर्मित मन्त्र हैं, जबकि 'ब' वर्ग के मंत्र अन्य परम्परा से गृहीत हैं। नीचे हम दोनो ही प्रकार के मंत्रों को प्रस्तुत कर रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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