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________________ १४० जैनधर्म और तान्त्रिक साधना भवन्तु भवन्तु वषट् ।। १७. क्षोभणम् ___ "(ॐ)आँ क्रॉ ह्रीं श्रीं सर्वेऽपि सूरिमन्त्राधिष्ठायकैः पूजान्तं यावदत्रैव स्थातव्यम् ।।" १८. क्षामणम (ॐ आज्ञाहीनं क्रियाहीनं मन्त्रहीनं च यत् कृतम्। तत् सर्वं कृपया देव! क्षमस्व परमेश्वर! ।।) १६. विसर्जनम् "(ॐ)आँ क्रॉ ह्रीं श्रीं सर्वेऽपि सूरिमन्त्राधिष्ठायकाः परेषामदृश्या भवन्तु का स्वाहा।। इति पञ्चोपचारपूजा।। २०. स्तुतिः "(ॐ)आँ क्रीं ह्रीं श्रीं सर्वेऽपि सूरिमन्त्राधिष्ठायका मम पूजां प्रतीच्छन्तु स्वाहा।।" मुद्रा प्राग्वत्। छोटिका, अमृतीकरणम्, ततोऽञ्जलिमुद्रया "(ॐ)आँ क्रौं ह्रीं श्रीं विद्यापीठप्रतिष्ठिता गौतमपदभक्ता देवी सरस्वती पूजां प्रतीच्छतु स्वाहा।।" विद्यापीठे नमोऽन्तेन मध्यमणौ वासक्षेपः ।। षट्कर्म विभिन्न साधनामार्गों में षट्कर्मों की अवधारणायें तो प्राचीन काल से ही पायी जाती हैं, किन्तु ये षट्कर्म कौन-कौन से हैं, इसे लेकर उनमें परस्पर भिन्न-भिन्न मान्यतायें हैं। जैन धर्म में भी षडावश्यक कार्मों की अवधारणा अति प्राचीन काल से पायी जाती है। उसमें इन षडावश्यक कर्मों के प्रतिपादन के लिये स्वतंत्र आगम ग्रन्थों की रचना हुई। प्रारम्भ में प्रत्येक आवश्यक कर्म के लिये एक-एक स्वतंत्र ग्रन्थ था, कालान्तर में उन छहों ग्रन्थों को मिलाकर आवश्यक सूत्र के नाम से एक ग्रन्थ बना दिया गया। जैनों के अनुसार ये षट्कर्म आवश्यक हैं-१-सामायिक (समभाव की साधना),२-चतुर्विंशतिस्तव (तीर्थंकरों की स्तुति), ३-वंदन (गुरु को प्रणाम करना), ४-प्रतिक्रमण (प्रायश्चित्त), ५-कयोत्सर्ग (ध्यान) और ६- प्रत्याख्यान (त्याग)। प्रारम्भ में ये षडावश्यक गृहस्थ और मुनि दोनों के लिये थे और आज भी श्वेताम्बर परम्परा में मुनि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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