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________________ ८२ जैनधर्म और तान्त्रिक साधना में चेतना को प्रभावित करने की शक्ति का अभाव हो तो उनकी कोई सार्थकता ही नहीं रह जाती है। जैन दर्शन के अनुसार जिस प्रकार कर्म-वर्गणा के पुद्गल जड़ होकर भी चेतना को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार मंत्र मूलतः पौद्गलिक होकर भी चेतना को प्रभावित करते हैं । जैन दर्शन जड़ और चेतन की पारस्परिक प्रभावशीलता को किसी सीमा तक स्वीकार करता है । जैन साधना में मन्त्र का स्थान जहां तक मंत्र - साधना का प्रश्न है यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में सामान्य रूप से मुनि के लिए मंत्र साधना का निषेध किया गया है । रयणसार (१०६) में कहा गया है कि जो मुनि मंत्र, तंत्र, विद्या अथवा ज्योतिष से आजीविका चलाता है - वह श्रमणों के लिए दूषण रूप है । इसी प्रकार ज्ञानार्णव (४१५२ - ५५) में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि " वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, मारण, उच्चाटन आदि की साधना करना; जल, अग्नि, विष आदि का स्तम्भन करना, रसकर्म या रसायन बनाना, नगर में क्षोभ उत्पन्न करना, इन्द्रजाल अर्थात् जादू करना, सेना का स्तम्भन करना, जीत-हार का विधान बताना, विद्या के छेदने की अथवा उसकी सिद्धि की साधना करना ज्योतिष, वैद्यक एवं अन्य विद्याओं की साधना करना, यक्षिणीमंत्र, पाताल सिद्धि के विधान आदि का अभ्यास करना, कालवंचना अर्थात् मृत्यु को जीतने की मंत्र की साधना करना, पादुका साधना, अदृश्य होने तथा गड़े धन देखने के लिए अंजन की साधना, शस्त्रादि की साधना, भूतसाधन, सर्पसाधन इत्यादि विक्रियारूप कार्यों में अनुरक्त होकर जो दुष्ट चेष्टा करने वाले हैं उन्होंने आत्मज्ञान से भी हाथ धोया और अपने दोनों लोक का कार्य भी नष्ट किया। ऐसे पुरुषों को ध्यान की सिद्धि होना कठिन है । वस्तुतः जैन धर्म में जिस मंत्र साधना का यह निषेध किया गया है, वह मारण, उच्चाटन, वशीकरण आदि षट् कर्मों से संबंधित है। मंत्र साधना से लौकिक एवं भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति करना अथवा शक्ति प्राप्त कर चमत्कार दिखाना जैन धर्म में वर्जित है, किन्तु संघ की रक्षा, जिन शासन की प्रभावना और दुःखित एवं पीड़ित लोगों के कष्ट निवारण के लिए मांत्रिक साधना अथवा विद्या साधना का निषेध नहीं है । भगवती आराधना में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख मिलता है कि जिन मुनियों को चोर आदि से उपद्रव हुआ हो, दुष्ट पशुओं से पीड़ा हुई हो, दुष्ट राजा से कष्ट पहुँचा हो अथवा नदी की बाढ़ आदि के द्वारा रोक दिये गए हों अथवा रोगों से पीड़ित हों तो विद्या अथवा मंत्रों की सहायता से उनकी पीड़ा को नष्ट करना, यह उनकी वैयावृत्ति है। इससे यह स्पष्ट होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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