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________________ मंत्र साधना और जैनधर्म है कि मुनि स्वयं तो अपने पर हुए उपसर्गों के निवारण हेतु अथवा अपनी पीड़ाओं के शमन के लिए मंत्र का उपयोग न करे लेकिन दूसरे व्यक्ति की सेवा की भावना से ऐसा कर सकता है। हम पूर्व में भी उल्लेख कर चुके हैं कि जैन कथानकों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनमें जैन धर्म की प्रभावना, संघ रक्षा, आगम रक्षा अथवा आगमों के अध्ययन को निर्विघ्न सम्पन्न करने के लिए जैन मुनियों द्वारा मंत्र साधना की जाती रही है। षट्खण्डागम की लेखन कथा में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख मिलता है कि आचार्य धरसेन ने पुष्पदंत । भूतबली को आगमों का अध्ययन कराने के पूर्व हीनाक्षर और अधिकाक्षर मंत्र देकर यह कहा था कि इसके द्वारा विद्या की साधना करो। अनुश्रुति से यह माना जाता है कि अधिकाक्षर मंत्र की साधना से अधिक दाँत वाली देवी प्रकट हुई और हीनाक्षर मंत्र की साधना से कानी (एक चक्षु) वाली देवी प्रकट हुई और पुष्पदंत और भूतबली ने स्वबुद्धि से उन मंत्रों के हीनाक्षर और अधिकाक्षर सम्बन्धी दोषों को शुद्ध करके पुनः साधना की, फलतः उन्हें देवी सिद्ध हुईं और उनका अध्ययन निर्विघ्न सम्पन्न हो ऐसा आर्शीवाद प्राप्त हुआ। मेरी दृष्टि में तो यहाँ हीनाक्षर और अधिकाक्षर मंत्र देकर धरसेन ने अपने शिष्यों में पाठ शुद्धि की क्षमता का आकलन करना चाहा होगा, क्योंकि जिस व्यक्ति में पाठशुद्धि की क्षमता न हो, उसको आगमों का अध्ययन कराना उचित नहीं है। पुनः इससे यह भी सिद्ध होता है कि षट्खण्डागम के लेखन के पूर्व भी जैन परम्परा में मुनियों के द्वारा मंत्र एवं विद्याओं की साधना की जाती थी। श्वेताम्बर साहित्य में तो ऐसे विपुल उदाहरण हैं जहाँ आचार्यों ने विद्या और मंत्रों की सहायता से संघ की रक्षा और जिन शासन की प्रभावना की थी। आज भी श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के पूर्व वर्धमान विद्या और सूरिमंत्र की साधना करनी होती है। ज्ञातव्य है कि सामान्य मुनि केवल वर्धमान विद्या की साधना करता है, केवल आचार्य अथवा आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किये जाने वाला मुनि ही 'सूरिमंत्र की साधना कर सकता है। चाहे मंत्र-तंत्र की साधना का प्राचीन जैनागमों में कितना ही निषेध रहा हो, किन्तु व्यवहार के क्षेत्र में यह परम्परा वर्तमान काल में भी जीवित है। फिर भी इतना अवश्य है कि मंत्र-तंत्र की साधना और प्रयोग करने वाले मुनियों और आचार्यों को जन साधारण पर उनके व्यापक प्रभाव के बावजूद भी समाज में निम्न दृष्टि से ही देखा जाता है। जैन मन्त्रों का ऐतिहासिक विकासक्रम जैन परम्परा में जो मंत्र उपलब्ध होते हैं, उन्हें अपने ऐतिहासिक विकास और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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