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________________ अध्याय - ५ मंत्र साधना और जैनधर्म तांत्रिक साधना में मंत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है। तंत्र में गुरु से दीक्षित होकर उनके द्वारा प्रदत्त मंत्र की साधना से ही साधक की साधना का प्रारम्भ होता है, किन्तु जैन साधना में, मन्त्र के स्थान एवं महत्त्व के सन्दर्भ में विशेष चर्चा करने के पूर्व सर्वप्रथम 'मंत्र' शब्द का अर्थ स्पष्ट कर लेना आवश्यक है । मन्त्र का अर्थ सामान्यतया 'मंत्र' शब्द का प्रयोग चिन्तन या विचार के लिए मिलता है। ऋग्वेद में 'समानो मंत्र ऐसा एक सूत्र मिलता है। वहाँ इसका तात्पर्य यह है कि हमारा चिन्तन समान हो । मंत्र से ही निष्पन्न 'मंत्रणा' शब्द है जिसका तात्पर्य विचार-विमर्श करना है। एक अन्य अपेक्षा से जो मन को त्राण देता है अर्थात् मन को एकाग्र या शान्त करता है, उसे मंत्र कहा जाता है। धवला टीका में धरसेन के योनिप्राभृत को उद्धृत करते हुए कहा गया है कि मंत्र-तंत्रात्मक शक्तियाँ पुद्गल का एक विभाग हैं। ("जोणिपाहुडे भणिदं मंत-तंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति घेत्तव्वों") दूसरे शब्दों में जैन धर्म में मंत्र-तंत्र पौद्गलिक शक्तियाँ हैं । यहाँ यह बात विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित करती है कि जैन परम्परा में मंत्र को आध्यात्मिक शक्ति से समन्वित न मानकर पौद्गलिक शक्ति से समन्वित माना गया है। जबकि अन्य दार्शनिक परम्पराएँ उसे आध्यात्मिक शक्ति से समन्वित ही मानती हैं। जैनों के अनुसार मंत्र ध्वनि रूप होते हैं, क्योंकि समस्त मंत्रों की संरचना मातृकापदों अर्थात् मूलभूत स्वर व्यंजनों से ही होती है । ये स्वर, व्यंजन ध्वनिरूप होते हैं। चूंकि जैन दर्शन में ध्वनि एक पौद्गलिक संरचना है, अतः मंत्र भी पौद्गलिक है। वस्तुतः मंत्र के उच्चारण से जो ध्वनि तरंगें निःसरित होती हैं उनमें ही मंत्र की कार्य शक्ति निहित होती है। आधुनिक जैन विद्वानों तथा वैज्ञानिकों दोनों ने ही मंत्रों की ध्वनि तरंगों की प्रभावशीलता के सन्दर्भ में अनेक लेख लिखे हैं । पुनः यह भी ज्ञातव्य है कि विचार या चिन्तन भी शब्द रूप होता है और शब्द ध्वनि रूप होते हैं। मंत्र-सिद्धि में वस्तुतः ध्वनि की कम्पन तरंगें ही महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। अतः जैन आचार्यों का यह मानना कि मंत्र पौद्गलिक हैं, युक्तिसंगत और वैज्ञानिक है। किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि मंत्र चित्शक्ति को प्रभावित नहीं करता है । यदि मंत्रों I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001796
Book TitleJain Dharma aur Tantrik Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1997
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Occult
File Size25 MB
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