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________________ द्वितीय अध्याय [ ३९ जन्मके भेदसम्मूर्च्छनगर्भोपपादा जन्म ॥३१॥ अर्थ- ( जन्म ) जन्म ( सम्मुछेनगर्भोपपादा) सम्पूर्छन गर्भ और उपपादके भेदसे तीन प्रकारका होता है। सम्मूर्च्छन जन्म- अपने शरीरके योग्य पुद्गल परमाणुओंके द्वारा मातापिताके रज और वीर्यके बिना ही अवयवोंकी रचना होनेको सम्मूर्च्छन जन्म कहते हैं। गर्भजन्म- स्त्रीके उदरमें रज और वीर्यके मिलनेसे जो जन्म होता है उसे गर्भजन्म कहते हैं। उपपाद जन्म- माता-पिताके रज और वीर्यके बिनादेव नारकियोके निश्चित स्थान-विशेषपर उत्पन्न होनेको उपपाद जन्म कहते हैं । योनियोंके भेदसचित्तशीतसंवृताः सेतरा मिश्राश्चैकशस्तद्योनयः॥३२॥ अर्थ-(सचित्तशीतसंवृताः) सचित, शीत, संवृत तीन(सेतराः) इनसे उल्टी तीन अचित, उष्ण, विवृत (च) और ( एकश:) एकर कर (मिश्राः) क्रमसे मिली हुई तीन सचिताचित, शोतोष्ण, संवृत विवृत ये नो ( तद्योनयः) सम्मूर्च्छन आदि जन्मोंकी योनियाँ हैं। सचित्तयोनि- जीव सहित योनिको सचित्तयोनि कहते हैं। संवृतयोनि- जो किसीके देखनेमें न आवे ऐसे जीवके उत्पति स्थानको संवृतयोनि कहते हैं। विवृतयोनि- जो सबके देखने में आवे उस उत्पति स्थानको विवृतयोनि कहते हैं। शेष योनियोंका अर्थ स्पष्ट है ॥ ३२॥ 2. नवीन शरीर धारण करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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