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द्वितीय अध्याय
[ ३७ अर्थ-( गतिः ) जीव और पुद्गलोंका गमन ( अनुश्रेणि) श्रेणिके अनुसार ही होता है।
श्रेणि- लोकंके मध्यभागसे उपर, नीचे तथा तिर्यक् दिशामें क्रमसे सनिवेश (रचना) को प्राप्त हुए आकाश-प्रदेशोंकी पंक्तिको श्रेणि कहते
नोट- जो जीव मरकर दूसरे शरीरके लिये गमन करता है उसीका गमन विग्रह गतिमें श्रेणिके अनुसार होता है, अन्यका नहीं। इसी तरह जो पुद्गलका शुद्ध परमाणु एक समयमें चौदह राजु गमन करता है उसीका श्रेणिके अनुसार गमन होता है, सब पुद्गलोंका नहीं।
मुक्त जीवोंकी गतिअविग्रहा जीवस्य ॥२७॥ अर्थ- ( जीवस्य ) मुक्त' जीवकी गति( अविग्रहा) वक्रतारहितसीधी होती है।
भावार्थ- श्रेणिके अनुसार होनेवाली गतिके दो भेद हैं- १ विग्रहवती( जिसमें मुडना पडे )और २ अविग्रहा( जिसमें मुड़ना न पडे ।) इनमेंसे कर्मोका क्षयकर सिद्धशिलाके प्रति गमन करनेवाले जीवोंके अविग्रहा गति होती है।
संसारी जीवोंकी गति और समयविग्रहवती च संसारिणः प्राक्चतुर्थ्यः ॥२८॥
अर्थ- ( संसारिणः) संसारी जीवकी गति ( चतुर्थ्यः प्राक् ) चार समयसे पहले पहले ( विग्रहवती च) विग्रहवती और अविग्रहवती दोनों प्रकारकी होती है।
1. आगेके सूत्र में संपारी जीवका ग्रहण है इसलिये यहां पर जीवस्य' इस सामान्य पदसे भी मुक्त जीवका ग्रहण होता है।'
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