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________________ ३६ ] मोक्षशास्त्र मटीक समनस्ककी परिभाषासंज्ञिनः समनस्काः ॥ २४ ॥ अर्थ - ( समनस्का: ) मन सहित जीव (संज्ञिन: ) संज्ञी' कहलाते संज्ञा - हित अहितकी परीक्षा तथा गुणदोषका विचार वा स्मरणादिक करनेको संज्ञा कहते हैं ॥ २४ ॥ प्रश्न- जब कि जीवोंकी हिताहितमें प्रवृत्ति मनकी सहायता से ही होती है, तत्र वे विग्रहगतिमें मनके बिना भी नवीन शरीरकी प्राप्तिके लिये गमन क्यों करन ह ? उत्तर विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥ २५ ॥ अर्थ - ( विग्रहगतौ ) विग्रहगतिमें ( कर्मयोगः ) कार्मण काययोग होता है । उसीकी सहायतासे जीव एक गतिसे दूसरी गतिमें गमन करता है । विग्रहगति - एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरकी प्राप्तिके लिये गमन करना विग्रह गति ' हैं । 2 कर्मयोग - ज्ञानावरणादि कर्मोके समूहको कार्मण कहते हैं उसके निमित्तसे आत्माके प्रदेशोंमे जो हलन चलन होता है उसे कर्मयोग अथवा कार्मणयोग कहते हैं ॥ २५ ॥ गमन किस प्रकार होता है ? अनुश्रेणि गतिः ॥ २६ ॥ 1. संज्ञी जीव पंचेन्द्रिय ही होते हैं। 2. विग्रहाथां गति विग्रहगति: विग्रह- शरीरके लिये जो गति हो वह विग्रहगति है। शरीरं वष्मं विग्रहः इत्यमरः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001795
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorPannalal Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, P000, P005, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size12 MB
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